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गूंज उठे सन्नाटा सुरों की सदा से ठंडे सांचों में मैं ज्वाल ढाल पाऊं।
और कसो तार, तार-सप्तक मैं गाऊं। खूटियां न तड़कें यदि मीडूं मैं ऐलूं मंजिल नियराये जब पांव तोड़ बैलूं मुंदी-मुंदी रातों को धूप मैं उगाऊं।
और कसो तार, तार-सप्तक मैं गाऊं। न बाहर-भीतर के द्वंद्वों का मारा चिपकाये शनि चेहरे पर मंगल तारा क्या बरसा परती धरती निहार आऊं।
और कसो तार, तार-सप्तक मैं गाऊं। ढीले संबंधों को आपस में कस दूं सूखे तर्कों को मैं श्रद्धा का रस दूं पथरीले पंथों पर दूब मैं उगाऊं।
और कसो तार, तार-सप्तक मैं गाऊं। तुम मुझसे उत्तर न मांगो। तुम तो मुझसे कहो :
और कसो तार, तार-सप्तक मैं गाऊं।
पांचवां प्रश्नः कल कहा गया कि ज्ञान के आगमन पर बुद्धि (धी) गलित हो जाती है। क्या ज्ञान और बुद्धि विरोधी आयाम हैं? बुद्धत्व
और बुद्धि में क्या थोड़ा-सा भी मेल नहीं? हिंदुओं का जो प्रसिद्ध गायत्री मंत्र है वह इसी ज हां बुद्धि शून्य हो जाती है वहां बुद्धत्व बुद्धि (धी) के लिए प्रार्थना-सा लगता है। इस पैदा होता है। बुद्धि और बुद्धत्व उलझन को दूर करने की अनुकंपा करें। विरोधी आयाम नहीं हैं। बुद्धि की सीढ़ी से जहां
तुम ऊपर पैर रखते हो वहां बुद्धत्व शुरू होता है। तो विरोधी मत समझ लेना, सहयोगी है। विरोधी तो तब बनते हैं जब तुम बुद्धि की सीढ़ी को जोर से
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4