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साक्षी बचेगा। पर साक्षी को जानोगे तब न! ___ और साक्षी को जानने का जो गहरे से गहरा प्रयोग है, वह कामवासना के प्रति साक्षी हो जाना है। क्योंकि वही हमारी सबसे बड़ी पकड़ है। उससे ही छूटना कठिन है। उसका वेग अदम्य है। उसका बल गहन है। उसने हमें चारों तरफ से घेरा है। और घेरने का कारण भी है।
तुम्हारा शरीर निर्मित हुआ है काम-अणु से-पिता का आधा, मां का आधा। ऐसा दान है तुम्हारे शरीर में। दोनों के काम-अणुओं ने मिल कर पहला तुम्हारा अणु बनाया। फिर उसी अणु से और अणु पैदा होते रहे। आज तुम्हारे शरीर में, वैज्ञानिक कहते हैं, कोई सात करोड़ कामाणु हैं। ये जो सात करोड़ कामाणुओं से बना हुआ तुम्हारा शरीर है, इसके भीतर छिपा है तुम्हारा पुरुष। पुरुष यानी इस नगर के भीतर जो बसा है; इस पुर के भीतर जो बसा है। यह जो सात करोड़ की बस्ती है, इसके भीतर तुम कहीं हो। निश्चित ही सात करोड़ अणुओं ने तुम्हें घेरा हुआ है; सब तरफ से घेरा हुआ है। और उनकी पकड़ गहरी है। तुम उस भीड़ में खो गये हो। उस भीड़ में तुम्हें पता ही नहीं चल रहा है कि मैं कौन हूं? भीड़ क्या है? किसने मुझे घेरा है? तुम्हें अपनी याद ही नहीं रह गयी है। और इन सात करोड़ के प्रवाह में तुम खिंचे जाते हो। जैसे घोड़े, बलशाली घोड़े रथ को खींचे चले जायें, ऐसा तुम्हारे जीवन की छोटी-सी ज्योति को ये बलशाली सात करोड़ जीवाणु खींचे चले जाते हैं। तुम भागे चले जाते हो। यही मौत में गिरेंगे, क्योंकि जन्म के समय इनका ही कामवासना से निर्माण हुआ था। ___ ऐसा समझो : जो कामवासना से बना है वही मृत्यु में मरेगा। तुम तो बनने के पहले थे; तुम मिटने के बाद भी रहोगे। लेकिन यह प्रतीति तभी तुम्हारी स्पष्ट हो सकेगी-शास्त्र को सुन कर नहीं; स्वयं को जान कर; जाग कर।
सानुरागां स्त्रियं दृष्टवां मृत्यु वा समुपस्थितम्।
पास खड़ी हो प्रेम से भरी हुई स्त्री, युवा, सुंदर, सानुपाती, रागयुक्त, तुम्हारे प्रति उन्मुख, तुम्हारे प्रति आकर्षित, और खड़ी हो मृत्यु, इन दोनों के बीच अगर तुम अविचलमना, जरा भी बिना हिले-डुले खड़े रहे, जैसे हवा का झोंका आये और दीये की लौ न कंपे, ऐसे तुम अकंप बने रहे, तो ही जानना कि तुम मुक्त हुए हो। जीवन-मुक्ति की यह भीतर की कसौटी है। __मुझसे लोग आकर पूछते हैं, हम कैसे समझें कि कोई आदमी मुक्त हुआ या नहीं? दूसरे को समझने का उपाय भी नहीं है, क्योंकि दूसरे को तो तुम कैसे समझोगे? बस, स्वयं को समझने का उपाय है। और यह प्रश्न ही गलत है कि तुम समझने की कोशिश करो कि दूसरा मुक्त हुआ या नहीं। तुम्हारा प्रयोजन? और बाहर से तुम समझोगे कैसे? बाहर से तो जो मुक्त हुआ है वह भी वैसा ही है जैसे तुम हो। भूख लगती है तो खाना खाता है, तुम्हारे जैसा ही। नींद आती तो सो जाता है, तुम्हारे जैसा ही! हां, कुछ फर्क भी है। लेकिन फर्क भीतरी है, उसका बाहर से कोई पता नहीं चलता। वह जब भोजन करता है तो होशपूर्वक करता है। मगर वह होश तो बाहर दिखाई नहीं पड़ेगा। वह जब सो जाता है, तब भी भीतर उसके कोई जागा रहता है। लेकिन उसे तो तुम भीतर जाओगे तो जानोगे। अभी तो तुम अपने भीतर नहीं गये तो दूसरे के भीतर जाने की तो बात ही छोड़ो। वह तुमसे न हो सकेगा।
यह तो पूछो ही मत कि मुक्त का लक्षण क्या है? अगर लक्षण पूछते हो तो अपने लिए पूछो। यह सूत्र तुम्हारे लिए है। इससे तुम दूसरे को जांचने मत चले जाना। नहीं तो तुम कहोगे, कृष्ण अभी
धर्म अर्थात सन्नाटे की साधना
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