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घर है जरूर, कहीं आसपास ही है, ज्यादा दूर भी नहीं है। मुझे मेरे घर पहुंचा दो ।
मुहल्ले के लोग इकट्ठे हो गये। लोग कहने लगे, 'तू पागल हुआ है ? यह तेरा घर है ! यह तेरी मां खड़ी है !' वह रोने लगा। वह कहने लगा कि मुझे इस तरह उलझाओ मत। मेरी मां राह देखती होगी। रात हुई जा रही है, देर हुई जा रही है। वह बड़ी तड़फती होगी। मुझे मेरे घर पहुंचा दो ।
एक दूसरा शराबी शराब पी कर अपनी बैलगाड़ी लिये चला आता था। वह भी खड़ा हो कर सुन रहा था। उसने कहा, 'सुन भाई, आ जा बैठ जा बैलगाड़ी में। मैं तुझे पहुंचा दूंगा।' लोग चिल्लाये कि पागल हो गया है, वह भी पीये बैठा है। वह तुझे ले जा रहा है, और तुझे ले जा रहा है तेरे घर से दूर !
मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं : तुम जहां हो, जैसे हो, ठीक वैसे ही होना है । तुम्हारा जो अंतरतम है, इस क्षण भी मोक्ष में है। तुम्हारे बाहर जो धूल-धवांस इकट्ठी हो गयी है, दर्पण पर जो धूल इकट्ठी हो गयी है, उसके कारण तुम पहचान नहीं पा रहे। दर्पण धुंधला हो गया है। लेकिन तुम्हें कहीं और कुछ और होना नहीं है । मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है ।
इसलिए कहता हूं कि मैं संन्यास देते ही तुम्हें तत्काल मुक्त कर देता हूं— मेरी तरफ से कर देता हूं, फिर तुम्हारी मर्जी । फिर तुम्हें सपना देखना हो तो तुम एक नया सपना देखोगे। तुम्हें अगर सपना ही देखना है तो तुम सपने का सिलसिला जारी रखोगे। मगर वह तुम्हारी भूल है, उसमें मेरी जिम्मेवारी नहीं है। तुम मुझे दोषी न ठहरा सकोगे। मैंने तो अपनी तरफ से घोषणा कर दी कि तुम मुक्त हो ।
इस घोषणा को अंगीकार करो। इस घोषणा को स्वीकार करो। हालांकि तुम्हारा मन कहेगा : मैं और मुक्त! तुम्हें सदा निंदा सिखायी गई है— 'तुम पापी, जन्म-जन्म के कर्मों से दबे, भ्रष्ट!''
'मैं और मुक्त ! नहीं, नहीं। मुक्त तो महावीर होते, बुद्ध होते, कृष्ण होते। यह तो अवतारी पुरुषों की बात है। मैं और मुक्त ! तो पत्नी है, बच्चे हैं, दफ्तर है, दूकान है। मैं और मुक्त ! नहीं, नहीं!', यह दावा करने की तुम्हारी हिम्मत नहीं होती । तुम कहते हो : 'मेरी तो पत्नी है, मेरे बच्चे हैं, मेरा घर-द्वार है । '
तुम सपने का हिसाब बता रहे हो; मैं तुम्हारा स्वभाव खोल रहा हूं। तुम अपने सपने का हिसाब बता रहे हो कि ये इतने पत्नी-बच्चे, यह सब कुछ मामला है, मैं कैसे मुक्त हो सकता हूं? मैं तुमसे कहता हूं, यह सारा जो तुम्हारा सपना है, सपना है। कौन तुम्हारा है ? किसके तुम हो ? कौन तुम्हारा हो सकता है ? किसके तुम हो सकते हो? तुम बस अपने हो। इसके अतिरिक्त सब मान्यता है, सब धारणा है।
तुमसे यह भी नहीं कह रहा कि भाग जाओ घर छोड़ कर, क्योंकि कौन पत्नी, कौन बेटा! वह जो भागता है, वह भी सपने में है। मैं तुमसे कह रहा हूं : जाग जाओ, भागना कहां है ! होशपूर्वक देख लो। संसार जैसा चलता है, चलता रहने दो। कुछ अड़चन नहीं है। तुम्हारे जागने से संसार नहीं जाग जायेगा, लेकिन तुम जाग कर एक अनूठे अनुभव को उपलब्ध हो जाओगे। तुम हंसोगे भीतर ही भीतर कि जागे हुए लोग कैसे सोये-सोये चल रहे हैं ! जिनका स्वभाव मुक्ति है, वे कैसे बंधन में पड़े हैं ! तुम आश्चर्यचकित होओगे। बड़ी लीला चल रही है। परमात्मा बंधन में है ! मुक्त स्वभाव जंजीरों में जो हो नहीं सकता, , वैसा होता मालूम पड़ रहा है !
मैं तुम्हें मुक्त करता हूं, लेकिन तुम्हारा मन नहीं मानता। तुम कहते हो : 'कुछ करना पड़ेगा,
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4