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खिलता हुआ मालूम होगा। तब झरने में भी वही बहता मालूम होगा। तब आकाश में भटकते एक शुभ्र बादल में भी तुम उसी को तिरते हुए पाओगे। तब पक्षी की गुनगुनाहट में तुम उसी का उच्चार अनुभव करोगे।
अगर तुम्हारे भीतर स्वीकार है तो तत्क्षण उस स्वीकार की क्रांति में सारा जगत रूपांतरित हो जाता है। तुम बचोगे रूपांतरणं से? तुम भी रूपांतरित हो जाते हो।
तो मैं तो तुमसे कहता हूं, यह तुम्हें बहुत कठिन लगेगा, क्योंकि तुम्हारे संतों ने यह तो कहा है कि धन न हो तो स्वीकार कर लेना। तुम्हारे संतों ने तुमसे यह तो कहा है, झोपड़ा हो, महल न हो, तो स्वीकार कर लेना। तुम्हारे संतों ने यह तो कहा है कि बेटा घर में पैदा न हो तो स्वीकार कर लेना। लेकिन तुम्हारे संतों ने तुमसे यह नहीं कहा कि क्रोध को भी स्वीकार कर लेना, ईर्ष्या को भी स्वीकार कर लेना, घृणा को भी स्वीकार कर लेना। मैं तुमसे यह भी कहता हूं। क्योंकि मेरा स्वीकार परिपूर्ण है। मैं तुमसे कहता हूं, जो हो उसे स्वीकार कर लेना। बाहर की ही स्वीकृति अधूरी स्वीकृति होगी।
मैं तुमसे कहता हूं, तुम अपने को भी क्षमा कर दो। तुम्हारे संतों ने कहा है, दूसरों को क्षमा करना। मैं तुमसे कहता हूं, तुम कृपा करो, तुम अपने को भी क्षमा कर दो। और ध्यान रखना, जिसने अपने को क्षमा न किया, वह किसी को क्षमा न कर सकेगा। इस सूत्र को समझो। .
अगर तुम अपने पर कठोर हो तो तुम दूसरे पर भी कठोर रहोगे। अगर तुम्हारे भीतर द्वेष है और तुम जानते हो कि द्वेष बुरा है, नहीं होना चाहिए, तो तुम दूसरे आदमी में जब द्वेष देखोगे तो उसे क्षमा कैसे करोगे? कहो, कैसे यह संभव होगा? यह तो गणित में बैठेगा नहीं। अगर तुम्हारे भीतर क्रोध है
और तुम अपने क्रोध को क्षमा नहीं कर सकते तो जब तुम किसी दूसरे आदमी में क्रोध की झलक देखोगे तो कैसे क्षमा करोगे?
तुम्हारे संत तुमसे बड़ी व्यर्थ की बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, क्षमा कर दो दूसरे को। ... महात्मा गांधी अपने शिष्यों को कहते थेः अपने साथ कठोर रहना, दूसरे के साथ नम्र। यह असंभव है। यह बात ही गलत है। जो अपने साथ कठोर है. वह जाने-अनजाने दसरे के साथ भी कठोर होगा। सच तो यह है, जो अपने साथ कठोर है, वह दूसरे के साथ और भी ज्यादा कठोर होगा।
तुम जो अपने साथ करोगे, वही तुम दूसरे के साथ भी करोगे। इससे अन्यथा तुम कर नहीं सकते। तो छोटी-छोटी बातों पर तुम दूसरे की निंदा अपने मन में ले आओगे-बड़ी छोटी बातों पर, जिनका कोई मूल्य नहीं! तुम क्षमा न कर सकोगे। ___मैं तुम्हें कुछ और ही बात कह रहा हूं। मैं तुमसे कहता हूं : क्षमा करो स्वयं को भी। क्योंकि स्वयं के भीतर भी वही परमात्मा विराजमान है। क्षमा करो! एक बार करो, दो बार करो, हजार बार करो, क्षमा.करो! और तुम जैसे हो वैसा ही परमात्मा ने तुम्हें चाहा, ऐसा स्वीकार करो। उसकी यही मर्जी कि तुममें क्रोध हो। अब तुम क्या करोगे? तुम इसे भी स्वीकार कर लो। __ और तुम जरा समझना। जैसे ही तुम स्वीकार कर लोगे क्रोध को भी, तुम्हारे भीतर क्रोध बच सकेगा? क्रोध तो अस्वीकार करने से ही पैदा होता है। क्रोध तो तनाव है, बेचैनी है; जब तुम अस्वीकार करते हो तो पैदा होता है।
तुमने फर्क देखा? जिस चीज को तुम स्वीकार कर लो, उसमें क्रोध नहीं होता। एक आदमी आया,
रसो वै सः
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