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चाहता हूं, कभी तुम क्षण भर को भी पंख मार लेते हो, उसी क्षण आंसू बहते हैं। उसी क्षण तुम्हारे भीतर कोई मधुर स्वाद फैलने लगता है। तुम्हारे कंठ में कोई तृप्ति आने लगती है। कहो इसे प्रेम का क्षण, ध्यान का क्षण-एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं।
चौथा प्रश्नः मुझे जैसा मौका मिलता है वैसा ही ध्यान या कीर्तन या कर्म करके रस ले लेता हूं। इनमें कम या ज्यादा रस का फर्क भी नहीं कर पाता। हरेक परिस्थिति से मन सध जाता है। और इस कारण अपने लिए अब मार्ग की जरूरत नहीं है। अगर तुम कोई एक मार्ग नहीं चुन पाता हूं। कृपया हर स्थिति में मन के सधने का मजा मार्गदर्शन करें।
लेने लगे हो, अब मार्ग की जरूरत नहीं। औषधि
उनके लिए है जो बीमार हों। अगर स्वास्थ्य आने लगा तो अब औषधि की बात ही मत करो। अब तो भूल कर औषधि के पास मत जाना। क्योंकि औषधि, ' बीमार हो तो लाभ करती है और अगर स्वस्थ हो तो औषधि नुकसान करती है। औषधि जहर है।
तुम पूछते हो, 'अब तो हर कहीं कीर्तन में, ध्यान में या कर्म करके रस ले लेता हूं!' बस तो बात हो गयी। जहां रस आने लगा वहां परमात्मा की ध्वनि आने लगी।
रसो वै सः। उस प्रभ का रूप-रंग रस का है। उस प्रभ का नाम रस है। संदरतम नाम रस है। रस ही उसे कहो। जहां रस मिल जाये वहां प्रभु मौजूद है। रस मिले तो समझना कि पास ही कहीं मौजूद है। द्वार-दरवाजे खोल कर स्वागत को तैयार हो जानाः आ गया है! रस उसके पैरों की भनक है, उसके पायल की झनक है। रस उसकी मौजूदगी की खबर है। तो अगर काम में, ध्यान में, प्रार्थना, कीर्तन, भजन में, संगीत में, नाच में, सबमें रस आने लगा तो बात हो गयी। अब तुम्हें कोई जरूरत मार्ग चुनने की नहीं है। ऐसे ही चले चलो।
'हरेक परिस्थिति में मन सध जाता है।'
तो अब इसको समस्या मत बनाओ। यह तो समस्या का समाधान होने लगा। ऐसा ही होना चाहिए। ऐसा ही तो होना चाहिए।
अब तुम पूछते हो : 'इस कारण अपने लिए कोई एक मार्ग नहीं चुन पाता।' अब तुम्हें कोई जरूरत नहीं है। रस तुम्हारा मार्ग है। अब सब तरफ से रस को चुनते चलो।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4