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भिखारी ही हैं न आखिर ! और मैं कोई उनसे पीछे तो हूं नहीं, तो मैं जाऊं क्यों ? आना होगा, खुद आ जायेंगे महल। मिलना होगा, खुद मिल जायेंगे। उस मंत्री ने कहा, तो मेरा इस्तीफा लें। वह मंत्री बड़ा उपयोग का था। उसके हाथ में सारी कुंजियां थीं राज्य की । राजा घबराया। वह तो लंपट किस्म का राजा था। उसको तो कुछ पता भी न था, कैसे राज्य चलता है, क्या होता है। वह तो सिर्फ नाममात्र को था; असली तो वजीर था । उस वजीर ने कहा, फिर मुझे छोड़ें। वह राजा कहने लगा, इसमें नाराज होने की बात क्या है ? छोड़ने की जरूरत क्या है।
. उसने कहा कि नहीं, अब आपके पास बैठना ठीक नहीं है। गांव में बुद्ध आते हों और जो उनको नमस्कार करने न जाये, उसके पास बैठना ठीक नहीं है। इसके पास रहने में तो खतरा है। यह तो बीमारी लगने का डर है। मैं अब आपके पास रुक नहीं सकता। अब आप चाहे चलो भी तो भी नहीं रुक सकता। याद रखना कि बुद्ध के पास यह राज्य था और उन्होंने छोड़ दिया; तुम्हारी अभी भी छोड़ने की हिम्मत नहीं पड़ी है। वे तुमसे आगे हैं। यह बुद्ध का भिखमंगापन साधारण भिखमंगापन नहीं है। यह बुद्ध का भिखमंगापन बड़ा समृद्ध है; साम्राज्यों से ऊपर है; सम्राटों से पार है। और अगर तुम यहां नमन करने को नहीं जाते तो तुम्हारे जीवन में फिर नमन कहां से आयेगा ? और जिसके जीवन में नमन नहीं है, नमस्कार नहीं है, उसके पास रुकना ठीक नहीं। क्योंकि उसके जीवन में सिवाय अहंकार
हर के और कुछ भी नहीं हो सकता । नमस्कार तो अमृत है।
'सारे धन कमा कर मनुष्य अतिशय भोगों को पाता है, लेकिन सबके त्याग के बिना सुखी नहीं होता ।'
अर्जयित्वाऽखिलानार्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान्।
नहि सर्व परित्यागमंतरेण सुखी भवेत ।।
दूसरा सूत्र : 'सारे धन कमा कर... ।'
खयाल रखना - 'सारे धन'। सारे धन का अर्थ हुआ, जिस चीज में भी तुम्हें लगता है सुख मिलेगा, वह कोई भी हो चीज, वही धन हो गयी। जिसको भी तुम सुख का माध्यम समझते हो, वही धन है। तो कोई आदमी रुपये इकट्ठा करता है, कोई आदमी डाक टिकटें इकट्ठी करता है। जो रुपये इकट्ठा करता है, वह कहता है, क्या मूढ़ता कर रहे हो, डाक टिकटें इकट्ठी कर रहे हो, होश संभालो ! क्या करोगे इनका ? लेकिन उसे उसमें सुख है तो उसके लिए धन हो गया। धन का अर्थ ही यही होता है, जिसमें तुम्हें सुख है । कोई आदमी कुछ इकट्ठा करता है, कोई आदमी कुछ। कोई आदमी ज्ञान इकट्ठा करता है, वह उसके लिए धन हो गया। और कोई आदमी बिलकुल व्यर्थ की चीजें इकट्ठी करता हो सकता है। तुम्हें व्यर्थ की लगती हैं। अगर उसे उनमें सुख की आशा है तो वह उसके लिए धन हो गया।
सूत्र कहता है : सारे धन कमा कर – अर्जयित्वा अखिलान् अर्थान् - सारे धन इकट्ठे कर लिए, भोगान् आप्नोति पुष्कलान् — और अतिशय भोगों को भी पाता है, लेकिन सबके त्याग के बिना सुखी नहीं होता ।
अष्टावक्र भोग और सुख में फर्क कर रहे हैं।
अब इसे समझो। साधारणतः तो तुम सोचते हो : भोग यानी सुख । लेकिन भोग को अगर तुम
परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है
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