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रामतीर्थ ने कहा है कि एक युवक परदेस गया। उसकी प्रेयसी उसकी बहुत दिन तक राह देखती रही। पत्र उसके आते रहे। वह कहता, अब आऊंगा, तब आऊंगा, लेकिन आता करता नहीं । आखिर प्रेयसी थक गयी। और वह पहुंच गयी परदेस । वह पहुंच गयी उसके द्वार पर । वह कुछ लिख रहा था। तो वह बैठ गयी देहली पर, कि वह लिखना पूरा कर ले। वह बड़ी तल्लीनता से लिख रहा है। उसके आंसू बह रहे हैं। वह बड़े भाव में निमग्न है । उसको पता ही नहीं चला कि यह आ कर बैठी है। आधी रात होने लगी। तब उस प्रेयसी ने कहा कि अब रुको भी, कब तक लिखते रहोगे ? मैं कब तक बैठी रहूं? वह तो घबड़ा कर उसने आंख खोली । उसको तो भरोसा न आया। उसने तो समझा कोई भूत-प्रेत है, कि मर गयी मेरी प्रेयसी, या क्या हुआ ! 'तू यहां कैसे ?' वह तो एकदम थरथराने लगा। उसने कहा : अरे घबराओ मत, मैं यहां बड़ी देर से बैठी हूं। तो उसने कहा : तूने पहले क्यों नहीं कहा ?
तो उसने कहा मैंने सोचा कि आप कुछ लिख रहे हैं।
उसने कहा : क्या खाक लिख रहा हूं, पत्र लिख रहा हूं तुझी । तू पहले ही कह दी होती ! तो कुछ लोग ऐसे हैं : बहियां रखे बैठे हैं। राम-राम, राम-राम लिख रहे हैं। अगर राम भी आ कर खड़े हो जाएं, वे कहेंगे: ठहरो, हमारी बही पूरी होने दो! कोई मंत्र पढ़ रहा है, तो मंत्र में ही लगा है । वह सुनेगा भी नहीं। तो वह भगवान की भी नहीं सुनेगा ।
तरीकत में उलझ मत जाना। बहुत लोग उलझ गये हैं । क्रियाकांडी हो जाते हैं। उनका काम ही यही होता है।
मैं एक सज्जन को जानता था । उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। गांव के लोग कहते बड़े धार्मिक हैं। कभी-कभी उस गांव जाता था। मैंने पूछा कि मामला क्या है, इनके धार्मिक होने का राज ? तो उन्होंने कहा कि ये बड़े शुद्धि से जीते हैं। तो मैं एक दिन चौबीस घंटे उनका खयाल रखा कि वे किस तरह जीते, क्या करते हैं। उनकी शुद्धि अदभुत थी। वे पानी भरने जायें नल से - गरीब आदमी थे, घर में नल भी न था, सड़क नल से पानी भर कर लायें— मगर अगर स्त्री दिखाई पड़ जाये तो वे फौरन उलट दें। अशुद्ध हो गया पानी ! फिर मल कर वह अपनी गगरी को साफ करें। अब स्त्रियों का कोई ठिकाना है ! रास्ता चल रहा है, फिर कोई स्त्री निकल गयी। वह फिर उनका उलट गया। कभी पचास दफे भी! मगर चाहे सांझ हो जाये, मगर वे शुद्ध पानी ले कर ही लौटें। फिर खुद ही अपने हाथ से भोजन बनाना । फिर खुद ही कपड़े धोना ।
मैं उनसे पूछा कि तुम्हें और कुछ करने को फुर्सत मिलती है? उन्होंने कहा : फुर्सत कहां ? शुद्धि में ही सब समय चला जाता है। और शुद्धि हर चीज की। घी भी खुद बनाना। तीन घंटे से ज्यादा पुराना हो जाये घी, अशुद्ध हो गया। आटा रोज पीसना । रखा कल का आटा बासा हो गया।
मैंने उनसे पूछा कि तुम भगवान का कब ध्यान करोगे? वे कहने लगे कि कभी-कभी मुझे भी सोच आता है कि यह मैं किस जाल में पड़ा हूं! मगर अब पड़ गया हूं और इसी में मेरी प्रतिष्ठा है ! यह गांव भर मुझे पूजता है। लोग गेहूं दे जाते, चावल दे जाते, दूध दे जाते—यही मेरी प्रतिष्ठा है। मगर मैं मर गया शुद्धि में ! मेरी जिंदगी ऐसे बीत गयी। अब मुझे भी डर लगता है कि स्त्री निकल जाये... कभी-कभी मैं भी सोचता हूं भर लो, कौन देख रहा है। मगर यह भी डर रहता है कि किसी
तू स्वयं मंदिर है।
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