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हला सूत्र:
सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वां मृत्यु वा समुपस्थितम्।
____अविह्वलमनाः स्वस्थो मक्त एव महाशयः।। 'प्रीतियुक्त स्त्री और समीप में उपस्थित मृत्यु को देख कर जो महाशय अविचलमना और स्वस्थ रहता है, वह निश्चय ही मुक्त है।'
यह मुक्त पुरुष की परिभाषा-किसे हम मुक्त कहें? . जीवन के बंधन दो हैं। एक तो बंधन है राग का और एक बंधन है भय का। तुम जिन हथकड़ी-बेड़ियों में बंधे हो, वे राग और भय की हैं। राग है जीवन के प्रति; भय है मृत्यु के प्रति। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। क्योंकि जीवन से राग है, इसलिए मृत्यु से भय है। अगर जीवन से राग चला जाए, जीवेषणा चली जाए, तो मृत्यु का भय भी गया। यदि मृत्यु का भय चला जाए, तो जीवन का राग भी गया। वे साथ-साथ जुड़े हैं। इसे खयाल में लेना, तो सूत्र बहुत साफ हो जाएगा।
हम जीना चाहते हैं। हम बिना जाने कि क्यों जीना चाहते हैं, जीना चाहते हैं। हजार विपदाएं हों, जीवन से कुछ सार न मिले, तो भी जीने की आकांक्षा प्रबल रहती है, मिटती ही नहीं है। हाथ-पैर टूट जायें, अंधे हो जायें, बूढ़े हो जायें; शरीर सड़ने लगे, गलने लगे, नाली में पड़े हों, दुर्गंध में डूबे हों-तो भी जीना चाहते हैं। जैसे इससे कुछ फर्क ही नहीं पड़ता कि हमारी दशा कैसी है!
तुम्हें कभी खयाल आया राह के किनारे किसी भिखारी को देख कर-हाथ-पैर टूटे हैं, अपंग है. अंधा है, घसिट रहा है, एक-एक पैसा मांग रहा है, दुत्कारा जा रहा है-कभी ऐसा विचार नहीं उठता कि आखिर यह आदमी जीना क्यों चाहता है? जीने से मिलेगा क्या? अब मिलने को क्या है? आंखें चली गयीं, हाथ-पैर चले गये, देह कृश हो गयी, कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी जी रहा है, सब तरफ से अपमान है, सब तरफ से दुर्दशा है; फिर भी जीये जा रहा है! क्यों जीना चाहता है? ऐसा प्रश्न उठता है कभी? लेकिन तब तम अपने को उस आदमी की जगह रख कर देखना कि अगर तम अंधे हो, हाथ-पैर टूट गये हों, भीख मांग कर जीना पड़े, तो जीयोगे या मर जाना चाहोगे? जल्दी मत करना। उस आदमी पर कठोर मत हो जाना। तुम भी जीना चाहोगे। वह भी तुम्हारे जैसा ही आदमी है।
जीवेषणा बड़ी प्रबल है! बड़ी अंधी वासना है जीने की! अकारण हम जीना चाहते हैं। कुछ नहीं