________________
जरा बाहर से आंख बंद करो ताकि भीतर आंख खुले। इस ऊर्जा को भीतर बहने दो। यह जो बाहर देखने का चाव है इसी चाव को जरा भीतर की तरफ मोड़ो; समझाओ-बुझाओ, फुसलाओ, राजी करो, कहो कि चल जरा भीतर भी देखें। बाहर बहुत देखा, आंखें थक गईं, पथरा गईं-कुछ मिलता तो नहीं। थोड़ा भीतर भी देखें, थोड़ा अपने भीतर भी देखें!
जिसे हम खोज रहे हैं, कौन जाने भीतर ही पड़ा हो! इसके पहले कि तुम सारी दुनिया में खोजने निकल जाओ, अपने घर में खोज लेना। क्योंकि दुनिया बहुत बड़ी है, खोजते-खोजते-खोजते कहीं न पहुंचोगे; कहीं ऐसा न हो कि अंत में पता चले, जिसे हम खोजने चले थे वह घर में ही पड़ा था।
और ऐसा ही है। जिन्होंने भीतर खोजा उन्होंने पा लिया और जिन्होंने बाहर खोजा उन्होंने कभी नहीं पाया। निरपवाद रूप से जिन्होंने अब तक खोजा है, पाया है, वे भीतर के खोजी हैं। निरपवाद रूप से जिन्होंने खोजा बहुत और पाया कभी नहीं, वे बाहर के खोजी हैं।
पहली आषाढ़ की संध्या में नीलांजन बादल बरस गये फट गया गगन में नील मेघ पथ की गगरी ज्यों फूट गई बौछार ज्योति की बरस गई झर गई बेल से किरण जुही मधुमयी चांदनी फैल गई
किरणों के सागर बिखर गये। जरा भीतर चलो–होती है अपूर्व वर्षा।
पहली आषाढ़ की संध्या में नीलांजन बादल बरस गये फट गया गगन में नील मेघ पथ की गगरी ज्यों फूट गई बौछार ज्योति की बरस गई झर गई बेल से किरण जुही मधुमयी चांदनी फैल गई
किरणों के सागर बिखर गये। तुम्हारे भीतर, तुम्हारे ही भीतर तुम महासूर्यों को छिपाये चल रहे हो। जरा खोलो भीतर की गांठ, जरा भीतर की गठरी खोलो, जरा भीतर की गगरी फोड़ो-किरणे ही किरणें बरस जायेंगी! उन किरणों की वर्षा में ही स्वच्छ हो जाती हैं इंद्रियां। उन किरणों की वर्षा में ही तृप्त हो जाते हैं प्राण। मिल गया फल!
'हंत, तत्वज्ञानी इस जगत में कभी खेद को नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि उसी एक से यह ब्रह्मांड-मंडल पूर्ण है।'
दत्तात्रेय के जीवन में उल्लेख है। भीख मांगने एक द्वार पर दस्तक दी। घर में कोई न था; एक
98
अष्टावक्र: महागीता भाग-4