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कर भीतर देखोगे तो पाओगे कि तृप्ति ही तृप्ति लहरें ले रही है। जिसने भी भीतर झांका, उसने पाया कि तृप्ति का सागर है! गहन परितोष ! सब भरा-पूरा है! जो चाहिए, मिला हुआ है! जैसा होना चाहिए वैसा है। इससे अन्यथा की मांग में उपद्रव शुरू होता है। तुम जितनी चीज से तृप्त हो सकते थे परमात्मा ने दी है, उससे ज्यादा दी है। जितने से तुम आनंदित हो सकते थे उतना सारा आयोजन तुम्हारे लिए है। अब तुम देखो ही न और तुम कहीं दौड़े चले जाओ, भागे चले जाओ, तुम्हारी आंखें कोल्हू के बैल की तरह एक दिशा में देखती रहें, और तुम चारों तरफ न देखो, और यह जो महत् रहा है इससे तुम्हारा कोई संबंध ही न बने – तो तुम अभागे हो, और कारण तुम्हीं हो !
'तृप्तः !'
तृप्ति सहज ज्ञान का फल है, जागरण का फल है। जाग कर जिसने देखा, उसने अपने को तृप्त पाया। सोये-सोये जिसने अपने को टटोला, उसने अपने को अतृप्त पाया । मेरे पास लोग आते हैं। कहते हैं: 'हम तृप्त कैसे हो जायें ? संतुष्ट कैसे हो जायें ?' मैं कहता हूं : यह गलत सवाल न पूछो। संतुष्ट और तृप्त होने की तुम चेष्टा कर ही रहे हो, करते ही रहे हो, वह नहीं हो पाया। मैं तुमसे कहता हूं, यह बात छोड़ो। तुम इतना तो देखो कि तुम कौन हो ? क्या हो ? बस! पहली बात पहले, प्रथम प्रथम । फिर दूसरे को हम दूसरा सोच लेंगे। तुम एक बात से परिचित हो जाओ कि तुम कौन हो ।
रमण महर्षि के पास पाल ब्रेटन जब गया तो वह बहुत-से प्रश्न लेकर गया था। लेकिन रमण ने कहा: 'बस एक ही प्रश्न सार्थक है। यही पूछना सार्थक है कि मैं कौन हूं। बाकी सब प्रश्न अपने से हल हो जायेंगे। तू एक ही प्रश्न पूछ ।' तो उसने कहा : 'अच्छी बात, यही पूछता हूं कि मैं कौन हूं!' मण ने कहा, 'यह भी तू मुझसे पूछता है ! आंख बंद कर और अपने से पूछ ले कि मैं कौन हूं। पूछता जा, खोजता जा। तू है, इतना तो पक्का है। तू है और चेतन है, इतना भी पक्का है। नहीं तो मुझसे पूछने कैसे आता ! जीवित है, चैतन्य है, अब और क्या चाहिए? दो महाघटनाओं का मिलन तेरे भीतर हो रहा है। '
चैतन्य और जीवन मिला, अब और क्या चाहिए तृप्ति के लिए! तुम्हें जीवन के वरदान का कोई स्मरण नहीं है। तुम भूल ही गये हो कि तुम्हारे पास क्या है। जीवन है !
सिकंदर जब भारत से वापस लौटता था, एक फकीर को मिलने गया । और फकीर से उसने कहा कि 'जानते हैं, मैं कौन हूं ? सिकंदर महान! सारी दुनिया का विजेता !' वह फकीर हंसने लगा। उसने कहा: 'कभी ऐसे ही सपने मैंने भी देखे थे, मगर मैं समय के पहले जाग गया। तू अभी जागा कि नहीं ?"
कौन सपने नहीं देखता सिकंदर होने के ! उस फकीर ने कहा : 'यह कोई नई बात है ! हर आदमी यही सपना ले कर पैदा होता है।' सिकंदर ने कहा: 'मैं समझा नहीं।' उस फकीर ने कहा : 'ऐसा सोच, रेगिस्तान में तू खो जाये और प्यास लगे जोर से और कोई आदमी कहे कि एक गिलास जल मैं तुझे दे सकता हूं, कितना साम्राज्य तू देने को राजी होगा एक गिलास जल के लिए ?' उसने कहा : 'आधा दे दूंगा उस क्षण में तो।' फकीर ने कहा: 'और वह जिद्दी हो और कहे कि मैं तो पूरा लूंगा, तो तू पूरा साम्राज्य देने को राजी होगा एक गिलास के लिए ?' सिकंदर ने थोड़ा सोचा और उसने कहा कि ऐसी घड़ी होगी, मरुस्थल में भटका होऊंगा तो पूरा साम्राज्य भी दे दूंगा। वह फकीर खूब खिलखिला कर
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4