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तूष्णीभूतस्य योगिनः।
वही है योगी। जिसने यह जान लिया कि एक ही है, फिर क्या भय है! तुममें भी मैं ही हूं, तो फिर क्या प्रश्न, फिर किससे संघर्ष? ___ डार्विन का सिद्धांत है : संघर्ष। और पूरब के समस्त ज्ञानियों का सिद्धांत है : समर्पण। और डार्विन कहता है : जो सबलतम हैं वे बचे रहते हैं। सरवाइवल ऑफ दि फिटेस्ट। और पूरब के ज्ञानी कुछ और कहते हैं। पूछो लाओत्सु से, पूछो अष्टावक्र से, पूछो बुद्ध से, महावीर से; वे कुछ और कहते हैं। वे कहते हैं : जो कोमल है वही बच रहता है। जो प्रेमपूर्ण है वही बच रहता है। स्त्रैण तो बच रहता है, कठोर तो हार जाता है। __ लाओत्सु कहता है : गिरती है जल की धार पहाड़ से कठोर चट्टान पर। ऊपर से तो देखने में यही
लगेगा कि चट्टान जीतेगी, धार हारेगी। धार तो कोमल है, चट्टान तो मजबूत है। अगर डार्विन सच था , तो धार हारनी थी, चट्टान जीतनी थी। लेकिन लाओत्सु सच मालूम होता है। धार जीत जाती है, चट्टान हार जाती है। कुछ वर्षों बाद तुम पाओगे चट्टान तो रेत हो कर बह गयी, धार अपनी जगह है।
कोमल जीतता है, कठोर हारता है। निरहंकारी जीतता है, अहंकारी हारता है। अहंकारी चट्टान की तरह है, निरहंकारी जल की धार है।
इसे ऐसा कहें, जो लड़ता वह हारता। जो हारता वही जीतता। जो हारने को राजी है उसका अर्थ ही यह है कि वह कहता है तुम भी मैं ही हो।।
कभी तुमने देखा, अपने छोटे बेटे से तुम कुश्ती लड़ते हो तो तुम जीतते थोड़े ही हो। बेटे से जीतोगे तो मुहल्ले के लोग भी हंसेंगे, यह क्या नासमझी की बात की तुमने! जरा-से बेटे से जीत कर उसकी छाती पर बैठ गये। नहीं, बाप जब बेटे से लड़ता है तो बस हारने के लिए लड़ता है। ऐसा थोड़ा...ऐसा भी नहीं कि एकदम से लेट जायें, नहीं तो बेटे को भी मजा नहीं आयेगा। वह कहेगा, यह क्या मामला है! क्या धोखा दे रहे? तो थोड़ा हाथ-पैर चलाता है, बल दिखलाता है, धमकाता है, लेकिन फिर लेट जाता है। बेटा छाती पर बैठ कर प्रसन्न होता है और कहता है जीत गये! बेटा अपना है तो हारने में डर क्या। अपने बेटे से कौन नहीं हारना चाहेगा!
उपनिषद के गुरुओं ने कहा है : गुरु तभी प्रसन्न होता है जब शिष्य से हार जाता है। अपने शिष्य से कौन नहीं हारना चाहेगा? कौन गुरु न चाहेगा कि शिष्य मुझसे आगे निकल जाये-वहां पहुंच जाये जहां मैं भी नहीं पहुंच पाया! जब अपना ही है तो हार का मजा है। पराये से हम जीतना चाहते हैं, अपने से थोड़े ही जीतना चाहते हैं। अगर यह मेरा ही विस्तार है, अगर मैं इस विस्तार का ही एक हिस्सा हूं, अगर तुम और मेरे बीच कोई फासला नहीं है, एक ही चेतना का सागर है, तो फिर कैसी हार, कैसी जीत, फिर कैसा संघर्ष! और जहां संघर्ष न रहा वहां शांति है। शांति लायी नहीं जाती; संघर्ष के अभाव का नाम शांति है।
तूष्णीभूतस्य योगिनः।
और वही है योगी जो इस भांति शांत हुआ। ऐसे बैठ गये पालथी मार कर, आंख बंद करके, जबर्दस्ती अपने को किसी तरह संभाल कर शांत किये बैठे हैं—यह कोई शांति नहीं है। यह तो सिकुड़ जाना है। मुर्दे की तरह बैठ गये अकड़ कर, किसी तरह अपने को समझा-बुझा कर, बांध-बूंध कर
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4