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हुआ ! यह तो बड़ी मजबूरी हुई। यह तुम थोड़ा सोचो। यह तो राम रावण पर निर्भर है। रावण भी न हो सकेगा राम के बिना। ये दोनों ही पात्र रामलीला में जरूरी हैं।
तुम जरा रामलीला खेल कर दिखा दो बिना रावण के ! लीला चलेगी नहीं, इंच भर आगे न चलेगी। कथा पहले से ही गिर जायेगी । और जनता पहले से उठ जायेगी कि फिजूल की बकवास है, जब रावण ही नहीं है तो रामलीला होगी कैसे! सीता चुराई जानी चाहिए, युद्ध होना चाहिए - यह कुछ भी नहीं होने वाला है । रामचंद्र जी बैठे हैं वहां, थोड़ी देर भक्त बैठे रहेंगे, राह देखेंगे कि कुछ हो; कुछ भी नहीं होगा, क्योंकि होने के लिए द्वंद्व चाहिए।
शुभ और अशुभ एक साथ हैं। रामलीला में दोनों सहयोगी हैं। और तुम्हें अगर ठीक-ठीक देखना हो तो कभी-कभी रामलीला देख कर रामलीला के पीछे भी जा कर देखना – पर्दे के पीछे – तुम राम-रावण को, दोनों को चाय पीते पाओगे, गपशप करते । इधर लड़ रहे थे पर्दे के इस पार, पीछे गपशप कर रहे हैं। ये सब एक ही नाटक मंडली के सदस्य हैं।
अष्टावक्र का सूत्र यह कह रहा है कि तुम्हें अगर नाटक के बिलकुल बाहर होना है तो तुम्हें सदस्यता छोड़नी पड़ेगी, तुम्हें यह मंडली ही छोड़ देनी पड़ेगी-न राम न रावण । तुम्हें दोनों के द्वंद्व के पार होना पड़ेगा ।
प्रवृत्तौ जायते रागो... ।
प्रवृत्ति तो है राग ।
निवृत्तौ द्वेष एव ही ... /
और निवृत्ति है द्वेष | मगर द्वेष भी तो बंधन है । जिस चीज से द्वेष होता है उससे हम बंधे रह जाते, अटके रह जाते हैं। एक खटक बनी रह जाती है। यह कोई मुक्ति तो न हुई ।
'निर्द्वद्वो बालबद्धीमानेवमेव व्यवस्थितः ।
यह सूत्र अदभुत है, स्वर्णसूत्र है ।
'बुद्धिमान पुरुष द्वंद्वमुक्त बालक के समान है; जैसा है वैसा ही है।'
कुछ बनने की चेष्टा नहीं है। बालक का अर्थ होता है : जो जैसा है वैसा है। जब उसे क्रोध आ जाता है तो बालक यह नहीं सोचता, करूं कि न करूं ! जब उसे प्रेम आ जाता है तो भी यह नहीं सोचता कि प्रगट करना उचित कि नहीं। वह हिसाब नहीं लगाता ।
एक अंग्रेज साधक चाडविक ने रमण के संस्मरणों में लिखा है कि वह बड़ा हैरान हुआ। एक दिन ऐसा हुआ कि एक संन्यासी, पुराणपंथी संन्यासी, विवाद करने आ गया। रमण ने उसे, जो वह पूछता था बार-बार, कहा । लेकिन वह तो सुनने को राजी न था, वह तो अपनी बुद्धि से भरा था, अपने शास्त्र से भरा था। वह तो बड़े उल्लेख, शास्त्रों के उदाहरण दे रहा था और बड़ी तर्क - वितण्डा फैला रहा था। रमण सीधे-साधे ! वे उसे सुनते, आधा घंटा उसे सुनते, फिर कहते कि साक्षी भाव रखो ! विवाद में उतरे नहीं। वह संन्यासी और जलने लगा, और क्रोध से भरने लगा। वह खींचना चाहता था विवाद में ! शिष्य थोड़े परेशान हुए कि यह व्यर्थ की बात हो रही है, व्यर्थ का समय खराब हो रहा है और व्यर्थ को महर्षि को परेशान किया जा रहा है। लेकिन करें क्या ! वह अपने तकिए से टिके महर्षि उसे सुनते। जब बहुत देर हो गई, उन्होंने उसे बार-बार कहा कि मेरी बात थोड़ी-सी है, वह मैंने तुमसे
साक्षी आया, दुख गया
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