Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 291
________________ समझाये, पुण्यात्मा हो; भूल में मत पड़ना। न तो पुण्य है वहां, न पाप है वहां। वहां निर्विकार है। तुमने क्या किया और क्या नहीं किया, सब सपने की बकवास है। उस एक को जानते ही सब किया-अनकिया सब खो जाता है, भ्रममात्र हो जाता है। __ और निरंजन। उस पर कोई चीज रंग नहीं चढ़ा सकती। अलिप्त है। तुम चाहे कितनी ही काल-कोठरियों से गुजरो, उस पर कालिख नहीं लग सकती। और तुम चाहे नर्क की यात्रा करो तो भी नर्क उस पर छाया नहीं डाल सकता। तुम्हारे भीतर ऐसा परमधन ले कर तुम चल रहे हो जो छीना नहीं जा सकता, विकृत नहीं किया जा सकता, चोर चुरा नहीं सकते। मगर तुम्हें उसकी याद नहीं है। तुम बाहर देख रहे हो। तुम्हें उसकी याद नहीं है। तुमने कभी-कभी देखा न कि आदमी चश्मा लगाये रहता और चश्मे को खोजता है! चश्मा ही लगाये है और चश्मे को खोजता है। जल्दी में ट्रेन पकड़नी, कि बस पकड़नी, कि कुछ काम आ गया है तो भूल जाता है एकदम। देखा कि आदमी कान पर पेंसिल खोंसे रहता और सारी टेबल खोज डालता है। ऐसी ही कुछ भूल हो गयी है। बस ऐसी ही भूल हो गयी है। भीतर पड़ा है और तुम यहां-वहां खोज रहे हो। फिर जब नहीं मिलता यहां-वहां तो बेचैनी बढ़ती है। बेचैनी में और भूल होती है। फिर जब बिलकुल नहीं मिलता, कितने ही दौड़ते हो, मीलों की यात्रा करते हो, जन्मों-जन्मों की यात्रा और नहीं मिलता, तो बहुत घबड़ा जाते हो। उस घबड़ाहट में और होश खो जाता है। ___ जरा बैठो। ध्यान का इतना ही अर्थ है : जरा बैठो। दौड़ो मत, खोजो भी मत; जरा शांत होकर बैठ जाओ। शायद जो तुम्हारे तल में पड़ा है, वह प्रगट हो जाये। शायद शांत अवस्था में तुम्हें अपने स्वभाव का स्मरण हो जाये। . मैंने सुना है, एक पुरानी कथा है। तुमने भी सुनी होगी। थोड़े-से फर्क उसमें करना चाहता हूं। पुरानी कथा है। दस मूढ़ व्यक्ति नदी पार किए। नदी पूर पर थी-वर्षा की नदी। उस पार जा कर उन्होंने सोचा कि गिनती कर लें, कहीं कोई खो न गया हो। तो उन्होंने गिनती की। जिसने भी गितनी की उसने नौ ही गिने, क्योंकि अपने को छोड़ गया। एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ। सब ने गिना और सबने पाया कि बात बिलकुल सही है; एक खो गया है। क्योंकि सभी अपने को छोड़ कर गिनती करते थे। वे तो बैठकर रोने लगे। वे तो छाती पीटने लगे कि साथी खो गया। पुरानी कथा कहती है कि कोई पंडित, बुद्धिमान पुरुष पास से गुजरा। उसने देखा, पूछा, क्यों रोते हो? कहा कि दस आये थे, नदी पार किये, नौ रह गये, एक खो गया। उसने नजर डाली, देखा दस के दस हैं, मूढ़ मालूम होते हैं। उसने कहा ः खड़े होओ, मैं गिनती करता हूं। उसने गिनती की। पहले उसने गिनती करवायी देखने लिए कि ये किस तरह की गिनती करते हैं। देखा। तो एक आदमी ने गिनती की-एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ। और उसने अपने को छोड़ दिया। तो उसने उसकी छाती पर हाथ रख कर जोर से कहा : पागल, दसवां तू है। तब उन्हें होश आ गया। वे दसों बड़े प्रसन्न हुए, उसे बड़ा धन्यवाद देने लगे कि आपने बड़ी कृपा की कि दसवां साथी मिल गया। नहीं तो खो ही गया था बिलकुल, गंवा बैठे थे। अब यह कहानी बड़ी महत्वपूर्ण है। लेकिन इसमें कहानी कहती है कि दस मूढ़ व्यक्ति थे। मैं तुमसे कहूंगा, दस पंडित व्यक्ति नदी के पार गये। इतना फर्क करूंगा। क्योंकि मूढ़ कहीं गिनती की 'परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है। 275 -

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