Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 378
________________ मैंने कहा, फिर भी दिखा तो दो। उन्होंने कहा, आप क्षमा करो, न देखो तो ठीक। फिर भी मैंने आग्रह किया तो उन्होंने बड़े डरते-डरते और संकोच से अपनी कापी दे दी। आड़े-तिरछे अक्षरों में नींद में लिखा गया था, आधी नींद में रहे होंगे। जो लिखा था, वह उनके दरवाजे के बाहर गोल्ड स्पॉट का एक बड़ा विज्ञापन लगा है : लिव्वा लिटल हॉट, सिप्पा गोल्ड स्पॉट! यह अंग्रेजी और इसका हिंदी में तरजुमा भी लिखा है : जी भर के जीयो, गोल्ड स्पॉट पीयो। यह कविता उतरी। इसी को रोज पढ़ते रहे होंगे। सामने ही लगा है बोर्ड। यही मन में बैठ गई होगी। यही रात सपने में डोलने लगी। ___तुम्हारा जो संसार है, वह तुम्हारी नींद में है। जो भ्रांतियां हो रही हैं, उनका ही नाम है।.तो जब भी अष्टावक्र ‘संसार' शब्द का उपयोग करते हैं कि ज्ञानी संसार से जाग जाता है, संसार से मुक्त हो जाता है, तो तुम संसार से यह मत समझना कि जो है उससे मुक्त हो जाता है। जो है, उससे कैसे मुक्त हो जाओगे? जो है, उसमें तो मुक्त होना है। जो नहीं है, उससे मुक्त होना है। और जो नहीं है, उससे मुक्त हो जाता है वही जो है, उसमें मुक्त हो जाता है। __ मुक्ति के दो पहलू हैं। झूठ से मुक्त होना है, सच में मुक्त होना है। झूठ के बंधन के कारण सच में हम अपने पंख नहीं खोल पाते। झूठ की जंजीरों के कारण सच के आकाश में नहीं उड़ पाते। नहीं! अगर ज्ञानियों की बात तुम ठीक से समझे तो तुम्हारा जीवन और भी सुंदर हो जायेगा, सुंदरतम हो जायेगा-सत्यम् शिवम् सुंदरम् होगा। __ यह संसार बड़ा स्वर्णिम हो जाये अगर तुम जाग जाओ; तुम्हारी नींद के कारण बहुत गंदा हो गया है। तुम्हारी बेहोशी के कारण विक्षिप्त दशा है यह। इस विक्षिप्त दशा को तुम संसार कह रहे हो! लोग दौड़े जा रहे, भागे जा रहे—यह भी नहीं जानते कहां जा रहे; यह भी नहीं जानते क्यों जा रहे। सब जा रहे, इसलिए वे भी जा रहे; सब दिल्ली जा रहे, इसलिए वे भी दिल्ली जा रहे। सबको पद चाहिए तो उनको भी पद चाहिए। सबको धन चाहिए तो उनको भी धन चाहिए। बाकी सबसे भी पूछो तो वे कहते हैं कि बाकी सबको चाहिए, इसलिए हमको भी चाहिए। लोग धक्कम-धुक्की में हैं; एक-दूसरे का अनुकरण कर रहे हैं। लोग कार्बन कापियां हैं; छाया की तरह जी रहे हैं। वास्तविक नहीं हैं, ठोस नहीं हैं, प्रामाणिक नहीं हैं। इस दौड़-धाप को, इस आपा-धापी को बीमारी कहना चाहिए। ___ मनोवैज्ञानिक कहते हैं, दुनिया में चार आदमियों में करीब-करीब तीन पागल हैं। और चौथे के संबंध में वे कहते हैं कि हम इतना ही कह सकते हैं कि संभव है कि न हो पागल, पक्का नहीं। और ऐसा होना ही चाहिए। जिनको हमने बुद्धपुरुष कहा है, ठीक यह होगा कि हम कहें कि ये वे थोड़े-से लोग हैं जो हमारे पागलपन के घेरे के बाहर हो गये। भीड़ तो पागल है। धन जोड़ते हो और जीवन गंवा देते हो। कंकड़-पत्थर इकट्ठे कर लेते हो, आत्मा बेच डालते हो। पागल नहीं तो और क्या हो? कांटे बटोर रहे हो, छाती से लगाये बैठे हो और फूलों का खयाल कर रहे हो। या कि कांटों पर फूलों के लेबिल लगा रखे हैं। कांटे चुभ भी रहे हैं, पीड़ा भी हो रही है, फिर भी छोड़ते नहीं। और अगर कोई कहे, तो तुम कहते हो संसार-चक्र बंद हो जायेगा; जैसे कि तुमने कुछ ठेका लिया है संसार-चक्र को चलाने का! संसार-चक्र तो परमात्मा का ही आयोजन है। संसार-चक्र तो परमात्मा की ही यात्रा है। ये संसार के चक्के तो उसके ही रथ के चक्के हैं। यह तो चलता रहेगा। अभी तुम घसीटे जा रहे हो, फिर तुम 362 अष्टावक्र: महागीता भाग-4

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