Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 335
________________ शांत कर लिया - यह कोई शांति नहीं है । वास्तविक योगी तो विश्राम को उपलब्ध हो जाता है, विराम को उपलब्ध हो जाता है। वह तो अपने को छोड़ देता, निमज्जित कर देता, बूंद सागर में गिर जाती है। इति विकल्पनाः अयं सः अहं अयं न क्षीणाः । 'यह मैं हूं, यह मैं नहीं हूं - ऐसी सब कल्पनाएं योगी की सदा के लिए क्षीण हो जाती हैं।' यह कहना कि यह मैं हूं और यह मैं नहीं हूं, भेद खड़ा करना है, जब कि एक ही है, तो किसी को कहना मैं और किसी को कहना तू, भेद खड़ा करना है; विकल्पना है, तुम्हारी धारणा है । और देखना, भय से भूत खड़े हो जाते हैं। खयाल पैदा हो जाये बस... । मेरे गांव में मैं जब कभी-कभी जाता, तो एक सज्जन को मैं जानता था जो सदा बात करते कि मैं भूत-प्रेत से बिलकुल नहीं डरता। उनसे मैं इतनी दफे सुन चुका – स्कूल में शिक्षक हैं—कि मैंने उनसे कहा कि तुम जरूर डरते होओगे। तुम बार-बार कहते हो कि मैं भूत-प्रेत से नहीं डरता। कोई कारण भी नहीं होता तब भी तुम कहते हो कि भूत-प्रेत से नहीं डरता । तुम जरूर डरते होओगे। मैंने कहा कि मैं भूत-प्रेत जानता हूं, एक जगह हैं। अगर तुम्हारी सच में हिम्मत हो तो तुम चले चलो। अब वे सदा कहते थे। तो घबड़ाये तो बहुत । उनके चेहरे से तो बहुत घबड़ाहट मालूम पड़ी। लेकिन अब अहंकार का मामला था । उन्होंने कहा, मैं डरता ही नहीं, कहां है? तो मेरे पड़ोस में ही एक गोडाउन, जहां एक कैरोसिन तेल बेचने वाले के टीन के डब्बे इकट्ठे रहते थे। खाली डब्बे गर्मी के दिन में सिकुड़ते और आवाज करते । और डब्बों की कतार लगी है उस घर में। तो मैंने उनसे कहा, बस तुम इसमें रात भर रह जाओ । घबड़ाये तो वे बहुत, क्योंकि उसमें वर्षों से कोई नहीं रहा है। उसमें डब्बे ही भरे रहते हैं वहां । कहने लगे, क्या आपको पक्का है कि यहां भूत-प्रेत हैं? मैंने कहा, पक्का है ही और तुम खुद अनुभव करोगे कि जब भूत-प्रेत एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगेंगे, तब तुम्हें पता चलेगा। घबड़ाना मत। और अगर कोई बहुत घबड़ाहट की बात हो जाये तो मैं एक घंटा टांग जाता हूं, इसको तुम बजा देना। तो मैं आ जाऊंगा और पास-पड़ोस के लोग आ जायेंगे, तुम्हें बचा लेंगे, तुम घबड़ाना मत। उन्होंने कहा, घबड़ाता ही नहीं मैं । तो मैंने कहा, फिर घंटा ले जाने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा, घंटा तो रख ही लेना चाहिए। 'तुम घबड़ाते ही नहीं तो घंटे का क्या करोगे ?' 'अब वक्त-बेवक्त की कौन जानता है!' मगर उनके हाथ-पैर कंपने लगे। मैं उन्हें छोड़ कर ही आया, कोई आधा ही घंटा नहीं हुआ होगा, शाम ही थी, साढ़े आठ-नौ बजे होंगे, कि उन्होंने जोर से घंटा बजाया। क्योंकि जैसे ही सांझ होती है और तापमान बदलता है तो दिन भर के तपे हुए डब्बे फैल जाते हैं और रात को सिकुड़ते हैं। जैसे ही सिकुड़ते कि आवाज होनी शुरू होती। अब उनको कल्पना तो पक्की थी और अकेले थे वहां, तो उन्होंने खूब कल्पना कर ली होगी अपने को संभालने के लिए, कि कोई कुछ नहीं कर सकता है, यह...। और जब उन्होंने सुना निकलने लगे भूत, एक डब्बे में से दूसरे में जाने लगे, घंटा बजाया। मैं पहुंचा। मुझे पता ही था कि घंटा बजेगा ही थोड़ी-बहुत देर में। ज्यादा देर नहीं लग सकती, क्योंकि भूत-प्रेत तो निकलेंगे ही। वे छज्जे पर खड़े हैं। उनको मैं कहूं कि आप अंदर से आ कर दरवाजा तथाता का सूत्र - संत है 319

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