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पहला प्रश्नः काम, क्रोध, लोभ, मोह क्या समय की ही छायाएं हैं? समय का सार क्या है ? कृपा करके हमें समझायें ।
मय को दो ढंग से सोचा जा सकता है । एक तो घड़ी का समय है, वह तो बाहर है। उससे तुम्हारा कुछ लेना
देना नहीं है। एक तुम्हारे भीतर समय है । उस भीतर के समय से घड़ी का कुछ लेना-देना नहीं है। तो जब भी मैं कहता हूं कि वासना समय है, कामना समय है, तृष्णा समय है - तो तुम घड़ी का समय मत समझना। तुम्हारे भीतर एक समय है। जब हम कहते हैं, बुद्ध और महावीर कालातीत हो गये, तो ऐसा नहीं हैं कि घड़ी चलती होती है तो उनके लिए बंद हो जाती है। घड़ी तो चलती रहती है- भीतर की घड़ी बंद हो गयी। ध्यान में, समाधि में, भीतर का समय शून्य हो जाता है।
तो भीतर के समय को थोड़ा हम पहचान लें ।
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तुम जब सुख में होते हो तब तुमने देखा होगा घड़ी तो पुरानी ही चाल से चलती है, लेकिन तुम्हारे भीतर का समय जल्दी-जल्दी भागने लगता है। किसी प्रियजन से मिलना हो गया तो घंटे ऐसे बीत जाते हैं जैसे पल बीते । घड़ी तो अब भी वैसी ही चल रही है। जब तुम आनंद में होते हो तो समय सिकुड़ जाता है। जब तुम दुख में होते हो तो समय फैल जाता है। जैसे तुम्हारी मां मृत्यु शैया पर पड़ी
और तुम उसके पास बैठे हो तो घड़ी-घड़ी ऐसी बीतती है जैसे सालों लंबी हो गयी। पल-पल सरक मालूम पड़ते हैं, घसिटते मालूम पड़ते हैं । सुख में तो समय भागता मालूम पड़ता है। दुख में समय घटिता मालूम पड़ता है; जैसे लंगड़ी चाल चलता हो । दुख में समय लंगड़ाता है, सुख में ओलंपिक के दौड़ने वालों की चाल से चलता है।
इसका अर्थ हुआ : अगर महासुख की घड़ी आ जाये तो समय इतना तेज हो जाता है कि पता ही नहीं चलता है कि चला। महासुख की घड़ी आ जाये तो समय का परिवर्तन पता नहीं चलता। दुख की घड़ी में, महादुख की घड़ी में बड़ी लंबाई हो जाती है।
कहते हैं, नरक अनंतकालीन है। वहां क्षण भी अनंत काल जैसा लगता होगा, क्योंकि बहुत कठिनाई से गुजरता होगा। स्वर्ग में सभी जल्दी भाग रहा होगा; क्षण भर में बीत जाता मालूम होता होगा । इतनी तेज चाल होगी। अगर महासुख की घड़ी आ जाये... ।
महासुख का अर्थ है : जहां दुख भी न रह जाये और सुख भी न रह जाये । आनंद की घड़ी