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में द्वंद्व पैदा नहीं हुआ। अभी भीतर और बाहर में एकरसता है। ___संत पुनः बच्चे की भांति हो जाता है। अब फिर बाहर और भीतर में एकरसता है। संत का कोई चरित्र नहीं होता। चौंकना मत जब मैं ऐसा कहता हूं! संत का कोई चरित्र हो ही नहीं सकता। सज्जन का चरित्र होता है, दुर्जन में दुश्चरित्रता होती है। संत तो चरित्र के पार होता है-चरित्रातीत।
'बुद्धिमान पुरुष द्वंद्वमुक्त है।'
उसके पास दो का भाव नहीं रह जाता। यह ठीक और यह सही; यह हेय, यह उपादेय; यह शुभ, यह अशुभ; यह माया, यह ब्रह्म-ऐसा कुछ नहीं रह जाता। जो है, है।
'...द्वंद्व मुक्त बालक के समान जैसा है वैसा ही रहता है।' संत होना सहज होना है।
तुमने तीन शब्द सुने हैं—सविकल्प समाधि; निर्विकल्प समाधि; सहज समाधि। सविकल्प समाधि में विचार रहता है। निर्विकल्प समाधि में विचार चला जाता है; लेकिन विचार चला गया है, इसका बोध रहता है। सहज समाधि में वह बोध भी चला जाता है; न विचार रहता, न निर्विचार रहता। सहज समाधि का अर्थ है : आ गये अपने घर, हो गये स्वाभाविक; अब जैसा है वैसा है; जो है वैसा है; उससे अन्यथा की न कोई चाह है न कोई मांग है। इस 'जैसे हो वैसे ही' के साथ राजी हो जाने में ही तृष्णा का पूर्ण विसर्जन है। फिर तृष्णा कैसी! फिर तृष्णा नहीं बच सकती है।
निर्द्वद्वो बालवत धीमान् एवं एव व्यवस्थितः।
वही है बुद्धिमान जो निर्द्वद्व बालक की भांति हो गया। वही है धीमान, उसी के पास प्रतिभा है। जैसा है वैसा ही उसमें ही स्थित, अन्यथा की कोई मांग नहीं, जरा भी तरंग नहीं उठती अन्यथा की!
बहुत कठिन है यह बात समझनी। है तो बहुत सरल, लेकिन समझनी कठिन है। क्योंकि हमें जो समझाया गया है वह इसके बिलकुल विपरीत पड़ता है। हमें तो समझाया गया है चोरी छोड़ो, अचोर । बनो; झूठ छोड़ो, सच बोलो। यह सच के ऊपर जा रही है बात।
कबीर के जीवन में ऐसा उल्लेख है, कि वे रोज उनके घर भजन करने लोग इकट्ठे होते थे। कबीर तो सहज समाधि में थे, बालवत थे। जब लोग इकट्ठे हो जाते और भोजन का समय होता तो वे उनसे कहतेः 'चलो भोजन करके जाना! अब कहां जाते हो, भोजन कर जाओ!' पति तो ऐसा कहे, लेकिन पत्नी बड़ी मुश्किल में पड़ गई। अब यह कहां से रोज-रोज भोजन लाओ! इतना भोजन! कबीर तो गरीब आदमी थे, कपड़ा बुन कर बेच लेते थे जो थोड़ा-बहुत, वह भी जो भजन इत्यादि से समय बच जाता कभी तो बुन लेते—उसी में काम चलाना था। तो पत्नी ने कहा कि मैं तो न कह सकूँगी, क्योंकि मैं कैसे कहूं कि घर में कुछ भी नहीं है, मैं कैसे खिलाऊं, कहां से लाऊं! उधारी बढ़ती जाती है। बेटे को कहा-कमाल को–कि तू अपने बाप को समझा कि अब यह कहना बंद कर दो, हमारे पास सुविधा नहीं है। लोग भजन करें, जायें, तो जाने दो, उनको रोको मत। हाथ पकड़-पकड़ कर रोकते हो कि बैठो, भोजन करके जाना, कहां जाते हो! लोग जाना भी चाहते हैं, क्योंकि लोगों को पता है कि घर में भोजन की सुविधा नहीं है।
तो कमाल ने कबीर से कहा, एक दफा कहा, दो दफा कहा, तीन दफा कहा, चौथी दफा कमाल नाराज हो गया। कमाल भी कमाल का ही बेटा था। उसने कहाः अब बंद करते हो कि नहीं? क्या
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4