Book Title: Ashtavakra Mahagita Part 04
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 390
________________ जाते। पूरा गांव जान जाता कि महात्मा जी आ गये। पूरा गांव मुश्किल में पड़ जाता। मगर इतना ही सारा खेल था। इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। जितना बाहर तुम प्रगट करना चाहते हो उसका कुल मतलब इतना ही होता है, भीतर का दीया नहीं जला; उसका परिपूरक कोई ढंग खोज रहे हो तुम कि लोगों को पता चल जाये। भीतर का दीया जल जाता है, तब तो लोगों को पता चलता है। वह पता चलना बड़ा सूक्ष्म है। तुम्हारी तरंगें लोगों के हृदय को छूने लगती हैं। तुम्हारे पास से उठती हुई तरंगें धीरे-धीरे लोगों के हृदय को घेर लेती हैं। बड़ा कोमल स्पर्श है। बड़ी स्त्रैण छाया है महाशय की, महात्मा की। आक्रमण नहीं है किसी के ऊपर। अहंकार आक्रमक है। अहंकार पुरुष है। निरहंकारिता तो बड़ी प्रेमपूर्ण है। भीतर का दीया मौजूद हो तो तुम बाहर की चिंता नहीं करते; लेकिन भीतर का दीया मौजूद न हो तब तो बाहर की ही चिंता पर निर्भर रहना पड़ता है। तो उपवास करोगे, शीर्षासन कर लोगे, आसन करोगे, व्यायाम करोगे, हजार तरह की मूढ़तायें करोगे। और पीछे खयाल रखना कि कुल आयोजन इतना ही हो रहा है कि लोगों को पता चल जाये कि तुम विशिष्ट हो; तुम कोई साधारण आदमी नहीं, बड़े विशिष्ट आदमी हो। __ तुम अगर अपने महात्माओं की जीवन-चर्या गौर से देखो तो निन्यानबे प्रतिशत इस तरह की बातें पाओगे जिनका कल आयोजन अहंकार की पष्टि है। किसी भी तरह सिद्ध कर देना है कि हम सामान्य नहीं हैं, विशिष्ट हैं। और जो विशिष्ट है वह कभी इस तरह की आकांक्षा नहीं करता। वह विशिष्ट है; सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है। उसकी विशिष्टता इतनी प्रगाढ़ है कि वह सामान्य होने की हिम्मत कर सकता है। इस बात को तुम खयाल में लेना। जिसकी विशिष्टता सुनिश्चित है, वही केवल सामान्य होने का साहस कर सकता है। जिसकी विशिष्टता सुनिश्चित नहीं है, वह विशिष्ट होने की चेष्टा करता है। असाधारण पुरुष साधारण हो सकता है। साधारण पुरुष असाधारण होने की योजना करता है। 'जो लोगों की तरह बरतता हुआ भी लोगों से भिन्न है...।' भिन्नता आंतरिक है, आत्मिक है। भिन्नता भीतर के प्रकाश की है; बाहर के व्यवहार की नहीं। 'वह धीर पुरुष न अपनी समाधि को, न विक्षेप को और न दूषण को ही देखता है।' उसे फिर कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। न अपनी समाधि दिखाई पड़ती है और न दूसरों की गैर-समाधि दिखाई पड़ती है। वह तुम्हारी तरफ ऐसे नहीं देखता कि तुम कोई हीन, पापी, नारकीय, कि तुम नरक की यात्रा पर जा रहे हो। वह ऐसा नहीं देखता। जिसको अपने भीतर विश्रांति मिल गई वह तुम्हारे भीतर भी कुछ दूषण नहीं देखता। बुद्ध का बड़ा अदभुत वचन है। बुद्ध ने कहा कि जिस क्षण मैं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, मेरे लिए सारा संसार ज्ञान को उपलब्ध हो गया; उसके बाद मैंने अज्ञानी देखा ही नहीं। यह मत समझ लेना कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये इस कारण। बुद्ध यह कह रहे हैं कि जिसकी आंख में ज्ञान आ जाता है वह तुम्हारे भीतर भी छिपे हुए रत्न को देख लेता है। वह तुम्हारे स्वभाव को भी देख लेता है। तो बुद्ध ने किसी के भीतर अज्ञानी नहीं देखा। और जब भी कोई महात्मा तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करने लगे कि मैं पवित्र, तुम अपवित्र; मैं ऊपर, तुम नीचे; मैं महात्मा, तुम साधारण पुरुष, सांसारिक-तब 374 अष्टावक्र: महागीता भाग-4

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