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मुझसे ठीक ही पूछी। और फिर देख मजे की बात, बीस साल पहले ये दोनों जब पैदा नहीं हुए थे तब भी सब ठीक था, अब ये दोनों चले गये तो गलत होने का क्या कारण है ! तब भी तो हम मजे में थे जब ये नहीं थे। जैसे तब थे वैसे अब होंगे। एक सपना था, देखा और टूट गया।
तो अगर शरीर के कारण भय लगता है तो यह शरीर तो जायेगा। इसे बचाने का कोई उपाय नहीं । अगर मन के कारण भय लगता है तो मन तो तुम हो ही नहीं। थोड़े जागो ! ध्यान करो! होश से भरो। जैसे-जैसे जागने लगोगे, चैतन्य की ज्योति जलने लगेगी, शरीर-मन से अलग होने लगोगे, वैसे-वैसे भय विसर्जित हो जायेगा ।
लेकिन तुम भय के खिलाफ मत लड़ो। खिलाफ लड़ोगे तो तुम भीतर तो कंपते ही रहोगे। हालत उल्टी बनी रहेगी। भय से मुक्त हो कर अपूर्व जीवन के फूल खिलते हैं। भय से दबे रह कर सब जीवन की कलियां बिन खिली रह जाती हैं, पंखुड़ियां खिलती ही नहीं । भय तो जड़ कर जाता है। तो मैं जानता हूं तुम्हारी तकलीफ। लेकिन तुम भय से बचने के लिए उत्सुक हो तो कभी न बच पाओगे। मैं तुमसे कहता हूं: भय को जानो, देखो - है; जीवन का हिस्सा है। आंख गड़ा कर भय को देखो, साक्षात्कार करो। जैसे-जैसे तुम्हारी आंख खुलने लगेगी और भय को तुम ठीक से देखने लगोगे, पहचानने लगोगे - कहां से भय पैदा होता है—उतना ही उतना भय विसर्जित होने लगेगा दूर हटने लगेगा। और एक ऐसी घड़ी आती है अभय की, जब कोई भय नहीं रह जाता । मृत्यु तो रहेगी, शरीर मरेगा, मन बदलेगा, सब होता रहेगा; लेकिन तुम्हारे अंतस्तल में कुछ है शाश्वत - सनातन छिपा, जिसकी कोई मृत्यु नहीं । उसका थोड़ा स्वाद लो। साक्षी में उसका स्वाद मिलेगा। उसके स्वाद पर ही भय विसर्जित होता है; और कोई उपाय नहीं है ।
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हरि ॐ तत्सत् !
अष्टावक्र: महागीता भाग-4