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अब तक शांत बना न सका जैसा गाना था गा न सका । जग की आहों को उर में भर कर देना था मुझको सस्वर निज आहों के आशय को भी मैं जगती को समझा न सका जैसा गाना था गा न सका ।
अहंकार को तो सदा लगता है कि आंगन टेढ़ा है और नाचना हो नहीं पा रहा है। आंगन टेढ़ा नहीं है। अहंकार ही टेढ़ा है और नाच सकता नहीं । गीत तो हो सकता है, अहंकार ही कंठ को दबाये है । अहंकार ही फांसी की तरह लगा है। गीत को पैदा नहीं होने देता। कंठ से स्वर निकलने नहीं देता ।
जितना ही तुम्हें लगता है मैं हूं, उतने ही तुम बंधे बंधे हो । जितना ही तुम्हें लगेगा मैं नहीं, वही है — फिर इस 'वही' को तुम परमात्मा कहो, सत्य कहो, जो तुम्हें नाम देना हो । भक्त कहेगा परमात्मा, ज्ञानी कहेगा सत्य । ज्ञानी कहेगा हकीकत। लेकिन वही है । ऐसी भाव- दशा में समर्पण हो गया - बिना किसी के चरणों में झुके और समर्पण हो गया।
आखिरी प्रश्नः यदि अहंकार, अचुनाव, 'च्वायसलेसनेस' का निर्णय कर ले तो उसकी क्या दशा होगी ?
अ
हंकार ऐसा निर्णय कर ही नहीं सकता। अचुनाव, 'च्वायसलेसनेस'
तो जब अहंकार नहीं होता, उस चित्त की दशा का नाम है। अहंकार ऐसा चुनाव नहीं कर सकता कि चलो, अब हम चुनावरहित हो गये। यह चुनाव ही हुआ। यह तो फिर तुमने चुन लिया। तुम चुनने वाले बने ही रहे।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, मन शांत नहीं होता, ध्यान की बड़ी कोशिश करते हैं, मन शांत नहीं होता। मैं उनसे कहता हूं, तुम शांति की फिक्र ही छोड़ दो। तुम सिर्फ ध्यान करो, शांत हो जायेगा। वे कहते हैं: ‘तो फिर शांत हो जाएगा ?' मैं तुमसे कह रहा हूं कि तुम फिक्र छोड़ो। वे कहते
तू स्वयं मंदिर है
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