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हम झूठ के सहारे जी रहे हैं, क्योंकि सच का हमें पता नहीं। और बिना किसी सहारे के जीना संभव नहीं है। सच का हमें कुछ पता नहीं है क्या है। और जीने के लिए कुछ तो सहारा चाहिए। जीने के लिए कुछ तो बहाना चाहिए। तो हम झूठ के साथ जी रहे हैं। हमने झूठ को सच मान लिया है। मैं एक कविता पढ़ रहा था
प्रेम के सघन कुंजों में उदासी की गहरी छांव तले आओ पल दो पल बैठ संतप्त मन को थोड़ा-सा बांट लें श्वासों के गांव में छाये हुए यादों के कोहरे को आपसी मिलापों से आओ हम छांट लें भूले अनुबंधों को, बिखरे संबंधों को आंसू के धागों में फिर से हम गांठ लें वीरानी पलकों में सपनों का दर्प कहां उजड़े-से जीवन में मधुमासी पर्व कहां पता नहीं फिर हम मिलें, या न मिलें कम-से-कम अपने ही सायों में
आओ घड़ी दो घड़ी ही काट लें। अपने ही सायों में! अपनी ही छाया में बैठ कर विश्राम करने तक की हालत आ जाती है। कुछ पता नहीं सत्य का। जीना तो है, तो चलो असत्य को ही सत्य मान कर जी लें!
एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना इस सदी में घटी है। नीत्शे ने घोषणा की सौ वर्ष पहले कि ईश्वर मर गया और मनुष्य स्वतंत्र है। लेकिन नीत्शे यह न समझ पाया कि आदमी को कोई न कोई बहाना चाहिए। अगर ईश्वर न हो तो आदमी ईश्वर गढ़ेगा। आदमी झूठा ईश्वर बना लेगा अगर ईश्वर न हो, लेकिन बिना ईश्वर के कैसे रहेगा! बहुत कठिन हो जायेगा। खुद नीत्शे न रह सका। वह आखिर-आखिर में पागल हो गया। बात तो उसने कह दी किसी विचार के गहरे क्षण में कि ईश्वर मर चुका और आदमी स्वतंत्र है। लेकिन स्वतंत्र होने की क्षमता तो चाहिए। सत्य को झेलने की क्षमता तो चाहिए। नीत्शे बुद्ध न हो सका, पागल हो गया। प्रबुद्ध होना तो दूर, प्रक्षिप्त हुआ, विक्षुब्ध हुआ, पागल हुआ! क्या था उसके पागलपन का कारण? बिना सहारे! अपने पागलपन में उसने जो डायरी लिखी उसमें लिखा है कि मुझे ऐसा लगता है : आदमी बिना झूठ के नहीं जी सकता। कोई-न-कोई झूठ चाहिए। मैंने सब झूठ छोड़ दिये, इसलिए लगता है कि मैं पागल हुआ जा रहा हूं।
अगर तुम सब झूठ छोड़ दो और तुम्हारी ऐसी धारणा हो कि सच तो है ही नहीं, तो तुम पागल हो ही जाओगे। यही फर्क है बुद्ध और नीत्शे में। बुद्ध ने भी सब झूठ छोड़ दिये; लेकिन बुद्ध को पता है : जहां झूठ होता है वहां सच भी होगा। सच के बिना तो झूठ हो ही नहीं सकते। झूठ कोई चीज होती ही इसीलिए है कि सच भी होता है, हो सकता है।
तुम जब कहते हो, मेरी हंसी झूठ, तो इसका अर्थ हुआ, तुम्हें भी कहीं-न-कहीं थोड़ा-सा
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4