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तार्थोऽनेन ज्ञानेनेत्येवं गलितधीः कृती ।
कृ
'इस ज्ञान से कृतार्थ अनुभव कर गलित हो गयी है बुद्धि जिसकी, ऐसा कृतकार्य पुरुष देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ, सुखपूर्वक रहता है ।'
यह जो ज्ञान है कि मैं साक्षी हूं, यह जो बोध है कि मैं कर्ता नहीं हूं—यही कृतार्थ कर जाता है। बड़ा विरोधाभासी वक्तव्य है । क्योंकि कृतार्थ का तो अर्थ होता है— करके जो तृप्ति मिलती है; कृति जो अर्थ मिलता; कुछ कर लिया। एक चित्रकार ने चित्र बनाया; चित्र बन गया, तो जो तृप्ति होती कृतार्थ का तो अर्थ ऐसा है : तुम एक भवन बनाना चाहते थे, बना लिया । उसे देख कर प्रफुल्लित होते हो कि जो करना चाहा था कर लिया; हजार झंझटें थीं, रुकावटें थीं, बाधाएं थीं- पार कर गये, विजय मिली, वासना पूरी हुई।
तो कृतार्थ शब्द का तो साधारणतः ऐसा अर्थ होता है— करने से जो सुख मिलता है। अकृतार्थ वही है जिसने किया और न कर पाया; हारा, पराजित हुआ, गिर गया – तो विषाद से भर जाता है। लेकिन अष्टावक्र की भाषा में, ज्ञानियों की भाषा में कृतार्थ वही है जिसने यह जाना कि कर्ता तो मैं हूं ही नहीं । जो कर्ता बन कर ही दौड़ता रहा वह लाख कृतार्थ होने की धारणाएं कर ले -कभी कृतार्थ होता नहीं। एक चीज बन जाती है, दूसरी को बनाने की वासना पैदा हो जाती है। एक वासना जाती नहीं, दस की कतार खड़ी हो जाती है। एक प्रश्न मिटता नहीं, दस खड़े हो जाते हैं। एक समस्या से जूझे कि दस समस्याएं मौजूद हो जाती हैं। इसे कहा है संसार सागर । लहर पर लहर चली आती है। तुम एक लहर से जूझो, किसी तरह एक को शांत करो, दूसरी आ रही है । लहरों का अनंत जाल है । इस भांति तुम जीत न सकोगे।
एक-एक समस्या से लड़ कर तुम कभी जीत न सकोगे - यह बहुमूल्य सूत्र है । साधारणतः मनुष्य की बुद्धि ऐसा सोचती है, एक-एक समस्या से सुलझ लें ।
मेरे पास लोग आते हैं। कोई कहता है, क्रोध की बड़ी समस्या है; क्रोध को जीत लूं तो बस सब हो गया। कोई कहता है, कामवासना से पीड़ित हूं, जाती नहीं; उम्र भी गयी, देह भी गयी, लेकिन