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मारे। जिसने सौ मारे वह उससे बड़ा है जिसने नब्बे कोड़े मारे। तुम भी अपने साधुओं की जांच कैसे करते हो ! किसी ने दस दिन का उपवास किया; किसी ने तीस दिन का किया तीस दिन करने वाला बड़ा। उसने तीस कोड़े मारे, किसी ने दस कोड़े मारे।
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तुमने कभी यह भी सोचा कि जो लोग इन साधुओं को कोड़े मारते हुए देखने जाते थे, ये बीमार हैं; रुग्ण हैं। एक तरह की विक्षिप्तता है । और ये दुष्ट हैं। और ये कारणभूत हैं। क्योंकि जब साधु कोड़े मार रहे हों और भीड़ देखने आयी, और भीड़ उसकी प्रशंसा करती है जो ज्यादा कोड़े मार लेता है - तो स्वभावतः जो दस मार सकता था वह भी बारह मार लेगा। दो कोड़े तुम्हारे कारण मार लेगा । और प्रतियोगिता पैदा हो जायेगी कि कौन ज्यादा मारता है। वहां भी अहंकार का संघर्ष शुरू हो जायेगा । तुमको भी समझ में आ जाये, क्योंकि हिंदुस्तान में कोड़े मारनेवालों का संप्रदाय नहीं है, तो तुम भी मान लोगे कि यह बात ठीक है, ये लोग कुछ दुखवादी हैं जो देखने जाते हैं। लेकिन तुम जब कोई मुनि, जैन मुनि उपवास करता है और तुम चरण स्पर्श करने जाते हो, तो तुम क्या करने जाते हो? यह भी कोड़ा मारना है । शायद कोड़े मारने से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि कोड़ा तो ऊपर मारा जाता
चमड़ी के, यह उपवास भीतर गहरे में कोड़ा मारना है। तुम कहते हो : 'हमारे महाराज ने तीन महीने का उपवास किया। तुम्हारे महाराज ने कितने दिन का उपवास किया ?' जिस-जिसके महाराज जरा पीछे पड़ गये हैं, वह जरा दीन हो जाता है।
एक दिगंबर घर में बहुत दिन तक रहा — एक दिगंबर जैन के परिवार में। तो मेरे पास कभी-कभी श्वेतांबर साधु-साध्वियां मिलने आते, तो वह दिगंबर परिवार उनको नमस्कार भी नहीं करता था। मैंने पूछा, 'मामला क्या है ? ये लोग जैसे साधु हैं...।' उन्होंने कहा, 'ये भी कोई साधु हैं ? साधु होते हैं हमारे, नग्न रहते हैं ! ये कोई साधु हैं! कपड़े पहने-जैसे हम पहने हैं, ऐसे ये पहने हैं। फर्क क्या है? साधु देखना है तो हमारे देखो, जो नग्न रहते हैं। धूप हो, ताप हो, नग्न रहते हैं। ये कोई साधु हैं! इनको क्या नमस्कार करना ! ये तो गृहस्थ ही हैं।'
श्वेतांबर साधु की दिगंबर जैन के मन में कोई प्रतिष्ठा नहीं है। हो भी कैसे ? क्योंकि सब दुखवादी हैं। और सब देख रहे हैं, कौन कितना दुख झेल रहा उतना ही । उतना ही । और जांच रख रहे हैं कि कहीं कोई किसी तरह से बच तो नहीं रहा है। आंख गड़ाये बैठे हैं। यह दुष्टों की जमात है। और ये दुष्ट जिसको भी जितना सताने में सफल हो जाते हैं उसकी उतनी प्रशंसा करते हैं स्वभावतः | यह प्रशंसा सौदा है।
तुम किसका आदर करते हो ? कांटे पर कोई साधु लेटा है, तुम आदर करते हो । अगर कोई साधारण दरी बिछाकर बिछौना करके लेटा है, तो तुम कहोगे, 'आदर की बात ही क्या है ? ऐसे तो हम भी लेटते हैं।' मामला ऐसा है कि तुम्हारा अपने प्रति भी कोई आदर नहीं है। क्योंकि तुम जब तक कांटों पर न लेटोगे, आदर करोगे कैसे? तुम्हारा आदर ही विक्षिप्त है।
रूस में ईसाइयों का एक संप्रदाय था जो अपनी जननेंद्रियां काट लेता था । उसका आदर था । उसके मानने वाले दूसरों के साधु को दो कौड़ी का समझते थे - कि तुम्हारा साधु किस मतलब का ? पक्का क्या कि यह ब्रह्मचारी है ? कहीं धोखा दे रहा हो ! साधु तो हमारा पक्का है, क्योंकि उसके ब्रह्मचर्य में धोखा देने का कोई कारण ही नहीं है।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4