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सिर्फ एक दीया भीतर जल गया है। - कुछ भी बदलता नहीं बुद्धपुरुष में। तुम्हारे जैसे ही हैं बुद्धपुरुष। जरा-सा भेद है। बड़ा छोटा-सा भेद है। तुम आंख बंद किये बैठे हो, उन्होंने आंख खोली ली। बस पलक का भेद है। ___तो अब मत पूछो कि और क्या करें। करने से संसार बनता है, न करने से प्रभु मिलता है। अब तो तुम साक्षी हो जाओ। अब मेरे पास आ ही गये हो, तो अब तो बैठ जाओ-आलसी शिरोमणि! जैसा अष्टावक्र कहते हैं। यह शब्द मेरा नहीं है। मेरा होता तो तुम जरा हैरान होते। अष्टावक्र कहते हैं, आलसी शिरोमणि हो जाओ। करो ही मत।
और ध्यान रखना, फर्क क्या करते हैं साधारण आलसी और आलसी शिरोमणि में? साधारण आलसी करता तो नहीं, कर्म तो नहीं करता, पड़ा रहता है बिस्तर पर, लेकिन कर्म की योजनाएं बनाता है। आलसी शिरोमणि करता है बहुत कुछ जो परमात्मा करवाता है, लेकिन कर्ता का भाव नहीं है, न कोई कर्म की योजना है। जो करवा लिया क्षण में, कर देता है, फिर बैठ गया। जब आज्ञा आ गयी, कर देता है; जब आज्ञा न आयी, तब विश्राम करता है। साधारण आलसी कर्म छोड़ देता है। और कर्ता छोड़ देता है जो, वही है आलसी शिरोमणि। तुम आलस्य के परम शिखर को छू लो। बस मेरी शिक्षा भी यही है।
दूसरा प्रश्नः ऐसा लगता है कि मेरा सब कुछ झूठ है-हरेक बात, हरेक विचार, हरेक भाव, प्रेम, प्रार्थना और हंसना और रोना भी। मैं जीता-जागता झूठ हूं। ऐसे में अब क्या हो भगवान? अब खुद पर भरोसा नहीं आता। | 0 | छा है 'कृष्णप्रिया' ने। यह लिखना भी झूठ है शायद।
यह तो बड़ी सत्य की किरण उतरी।
अगर ऐसा समझ में आ जाये कि मेरा सब झूठ है, तो आधा काम पूरा हो गया; निर्वाण दूर न रहा। आधा काम पूरा हो गया। ऐसा समझ में आ जाये कि मेरा सब झूठ है तो हम सच के करीब सरकने लगे। क्योंकि सच के करीब सरकते हैं, तभी यह समझ में आता है कि मेरा सब झूठ है। झूठे आदमी को थोड़े ही समझ में आता कि मेरा सब झूठ है। झूठा आदमी तो सब तरह के प्रमाण जुटाता है कि 'मैं और झूठा! सारी दुनिया होगी झूठ, मैं सच्चा हूं!' झूठा आदमी दूसरों को ही नहीं समझाता है, अपने को भी समझाता है कि मैं सच्चा हूं। असल में
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आलसी शिरोमणि हो रहो।
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