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झूठा आदमी दूसरे को इसीलिए समझाता है कि दूसरा समझ ले तो मुझे भी समझ में आ जाये कि मैं सच्चा हूं। दूसरों की आंखों में झांकता रहता है : 'अगर सब लोग मुझे सच्चा मानते हैं तो मैं सच्चा होऊंगा ही। अगर मेरी हंसी झूठ होती तो दूसरे लोग मेरे साथ कैसे हंसते ? अगर मेरा रोना झूठ होता तो दूसरों की आंखें गीली कैसे होतीं। नहीं, मैं सच होऊंगा ही । देखो, दूसरों में परिणाम दिखाई पड़ रहा है।' झूठा आदमी सारे उपाय करता है इस बात के ताकि उसे खुद भरोसा आ जाये कि मैं सच हूं। कृष्णप्रिया को अगर समझ में आने लगा कि मेरा सब कुछ झूठ है, तो बड़ी शुभ घड़ी करीब आ
गयी।
हंसना - रोना भी...।'
'हरेक बात, हरेक विचार, हरेक भाव, प्रेम, प्रार्थना, इस बात को भी खयाल में लेना कि जब झूठ होता है तो सभी झूठ होता है, और जब सच होता है तो सभी सच होता है, मिश्रण नहीं होता। वह भी भ्रांति है झूठे आदमी की । झूठा आदमी कहता है: माना कि कुछ बातें मुझमें झूठ हैं, लेकिन बाकी तो सच हैं। ऐसा होता नहीं । या तो झूठ या सच। ऐसा बीच-बीच में नहीं होता कि कुछ झूठ और कुछ सच । यह धोखा है। सच और झूठ साथ रह नहीं सकते। यह तो ऐसा हुआ कि आधे कमरे में अंधेरा और आधे कमरे में प्रकाश है। यह होता नहीं । अगर रोशनी है तो पूरे कमरे में हो जायेगी। अगर अंधेरा है तो पूरे कमरे में रहेगा। तुम ऐसा थोड़े ही कह सकते हो कि बीच में एक रेखा खींच दी, लक्ष्मण-रेखा खींच दी कि 'अब इसके पार मत होना अंधेरे! तू उसी तरफ रहना, इधर रोशनी जल रही है।' रोशनी होती है तो कमरा पूरा रोशनी से भर जाता है। और अंधेरा होता है तो पूरा भर जाता है।
तुम जब झूठे होते हो तो पूरे ही झूठ होते हो। जब भी कोई आदमी मुझसे आ कर कहता है, कुछ-कुछ शांत हूं, तो मैं कहता हूं ऐसी बातें मत करो। कुछ-कुछ शांत ! सुना नहीं कभी। अशांत लोग देखे हैं, शांत लोग भी देखे हैं, लेकिन कुछ-कुछ शांत ! यह तुम क्या बात कर रहे हो ? यह तो ऐसा हुआ कि पानी हमने गरम किया और पचास डिग्री पर कुछ-कुछ पानी भाप होने लगा और कुछ-कुछ पानी पानी रहा ! ऐसा नहीं होता। सौ डिग्री पर जब भाप बनना शुरू होता है – सौ डिग्री पर। ऐसा नहीं कि पचास डिग्री पर थोड़ा बना, फिर साठ डिग्री पर थोड़ा बना, फिर सत्तर डिग्री पर थोड़ा बना - ऐसा नहीं होता । छलांग है, विकास नहीं है। सीढ़ियां नहीं हैं— रूपांतरण है, क्रांति है।
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जिस दिन यह समझ में आ जाये कि मैं बिलकुल अंधेरा, बिलकुल असत्य - शुभ घड़ी करीब आयी। यह साधक की तैयारी है। इससे घबड़ाना मत। इससे घबड़ाहट होती है स्वभावतः, क्योंकि यह बात मानने का मन नहीं होता कि सब झूठ - मेरा हंसना भी, रोना भी; मेरा कुछ भी सच नहीं है, मेरा प्रेम, मेरी प्रार्थना... ।
यह प्रश्न लिखा है और यह भी भरोसा नहीं आता कि यह भी सच है। यह भी झूठ है !
ऐसा जब होता है तब स्वभावतः बड़ी बेचैनी पैदा होती है। उस बेचैनी से बचने के लिए आदमी किसी झूठ को सच बनाने में लग जाता है, तो सहारा बन जाता है। नहीं, तुम बनाना ही मत ।
कृष्णप्रिया को मेरा संदेशः झूठ है सब, ऐसा जान कर इस पीड़ा को झेलना । इसमें जल्दबाजी मत करना, लीपापोती मत करना। किसी झूठ को रंग-रोगन करके सच जैसा मत बना लेना । सब झूठ सब झूठ है । सब झूठ का अर्थ हुआ कि पूरा व्यक्तित्व व्यर्थ है । अगर इस व्यर्थता के बोध को
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4