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जुड़ जाओ तो मैं। कहीं भी जोड़ लो अपने को तो मैं। जब सब जोड़ छूट गये तो मैं बचता नहीं। तब भीतर रह जाता है शून्य स्वभाव। उस शून्य स्वभाव में कोई भय की रेखा भी पैदा नहीं होती।
तो तुम पूछते हो कि भय से कैसे छुटकारा हो?
नहीं, भय से छुटकारे की चेष्टा न करो; भय को समझो कि भय क्यों है? छुटकारे के तो तुम उपाय कर ही रहे हो। तो कोई भगवान के चरणों को पकड़े पड़ा है कि हे प्रभु, बचाओ, तुम्हारी शरण आया हूं। लेकिन भय के कारण ही पड़ा है। तुम भगवान को याद ही करते हो जब तुम भयभीत हो जाते हो।
एक नाव डूबी-डूबी हो रही थी और मुल्ला नसरुद्दीन और उसका मित्र दोनों कंप रहे हैं। नसरुद्दीन का मित्र घुटने टेक कर बैठ गया, नमाज पढ़ने लगा। उसने कहा, 'हे अल्लाह, हे परम पिता, अगर तूने मुझे बचा लिया तो मैं अब कभी भी शराब न पीऊंगा। अगर तूने मुझे आज बचा लिया तो मैं कभी धूम्रपान न करूंगा।' वह बड़े त्याग करने लगा। आखिर में वह यह कहने ही जा रहा था कि अगर तूने मुझे बचा लिया तो मैं संन्यासी हो जाऊंगा, फकीर हो जाऊंगा-तभी मुल्ला बोला, 'ठहर-ठहर! रुक! इतनी जल्दी मत कर, किनारा दिखाई पड़ रहा है।' और वह आदमी उठ कर खड़ा हो गया और भूल गया सब बकवास। जब किनारा ही दिखाई पड़ रहा है तो फिर कौन फिक्र करता है! ____ मुल्ला एक बार चढ़ रहा था वृक्ष पर, खजूर लगे थे। लंबा वृक्ष। पैर खिसके, तो कहने लगा, 'हे प्रभु अगर आज वृक्ष तक पहुंचा दो, खजूर तोड़ लूं, तो पूरा नगद एक रुपया चढ़ाऊंगा। पक्का मानो। हालांकि अतीत में मैंने ऐसा कुछ भी नहीं किया कि तुम भरोसा करो, मगर इस बार करो।' चढ़ गया। जब खजूर के बिलकुल पास पहुंचने लगा फलों के, तो उसने सोचा, यह तो तुम भी मानोगे कि इतने से खजूर के लिए एक रुपया ज्यादा है। जब खजूर पर हाथ ही रख दिया तो उसने कहा कि चढ़ें. तो हम और पैसा तुम्हें चढ़ायें! इसी बीच पैर खिसका और धड़ाम से जमीन पर गिरा। खजूर भी छूट गये। नीचे गिरा, जल्दी कपड़े झाड़ कर ऊपर देख कर बोला, 'यह भी क्या बात हुई। अरे जरा मजाक भी नहीं समझे! अगर आज गिराया न होता तो एक नगद कलदार चढ़ाते।' __ बस आदमी जब भय में होता है तब भगवान; जैसे ही भय के जरा बाहर हुआ कि भगवान इत्यादि सब भूल जाता है। तुम्हारा भगवान तुम्हारे भय का ही रूप है। ___ और लोग मानते हैं कि आत्मा अमर है। यह भी तुम्हारे भय की ही धारणा है। मैं यह नहीं कह रहा कि आत्मा अमर नहीं है। लेकिन तुम्हारा मानना कि आत्मा अमर है-भय की धारणा है। डरे हो मौत से, तो कहते हो, आत्मा अमर है। कंप रहे हो। आत्मा का कोई पता नहीं, अमरता की तो बात ही छोड़ो। मगर आत्मा अमर है! इन सिद्धांतों में अपने को छिपाने की कोशिश मत करो।
भय से मुक्ति संभव है-भय को जानने के द्वारा। भय का साक्षात्कार करो। जहां भी तुम्हें लगे भय है, वहां भय पर ध्यान करो। समझने की कोशिश करो-क्यों है? कहां है? किस कोने में छिपा? मन के किस अचेतन में बैठा? कहां से उठता यह धुआं? क्यों उठता?
जिन मित्र ने पूछा है, मुझे लगता है कि उन्होंने भय का कभी साक्षात्कार नहीं किया। भय ने उन्हें पंगु कर दिया है। तुम इस पंगुता को तोड़ो। जब भय लगे, बैठ कर शांति से ध्यानपूर्वक भय को पहचानो कहां है। लगता है शरीर मर जायेगा, तो शरीर तो मरना ही है। इसमें भय की क्या बात है?
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4