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पहला प्रश्नः अष्टावक्र के साक्षी, लाओत्सु के ताओ और आपकी तथाता में समता क्या है। और भेद क्या है ?
मता बहुत है; भेद बहुत थोड़ा । लाओत्सु ने जिसे ताओ कहा है वह ठीक वही है जिसे वेदों में ऋत कहा
है— ऋतंभरा; या जिसे बुद्ध ने धम्म, धर्म कहा; जो जीवन को चलाने वाला परम सिद्धांत है, जो सब सिद्धांतों का सिद्धांत है, जो इस विराट विश्व के अंतरतम में छिपा हुआ सूत्र है। जैसे माला के मन हैं और उनमें धागा पिरोया हुआ है; एक ही धागा सारे मनकों को संभाले हुए है। हर-हर . हैं जगत में, इन सब नियमों को संभालने वाला एक परम नियम भी होना चाहिए; अन्यथा सब बिखर जायेगा, माला टूट जायेगी । मनके दिखाई पड़ते हैं; भीतर छिपा धागा दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ना भी नहीं चाहिए; नहीं तो माला ठीक से बनायी नहीं गयी ।
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जो दिखाई पड़ता है, उसकी खोज विज्ञान करता है। तो ग्रेविटेशन का सिद्धांत, जमीन की कशिश, गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश का नियम, मैगनेटिक, चुंबकीय क्षेत्रों का नियम, और हजार-हजार नियम विज्ञान खोजता है। लेकिन इन सारे नियमों के मनकों के भीतर कोई एक महानियम भी होना चाहिए। नहीं तो इन सभी नियमों को कौन संभाले रखेगा? उस महानियम को लाओत्सु कहता है। ताओ; वेद कहते हैं ऋत्, ऋतंभरा; बुद्ध कहते हैं धर्म । भक्त भगवान कहता, परमात्मा कहता, ब्रह्म कहता है। यह नाम की बात है।
तो लाओत्सु का ताओ है परम नियम । और अष्टावक्र का साक्षी है उस परम नियम को जानने की विधि। जब तुम जागोगे, ऐसे जागोगे कि तुम्हारे भीतर जाग जाग की आग रह जाएगी; तुम्हारे भीतर एक विचार भी न रह जाएगा, जो उस आग को ढांक ले, छिपा ले; राख जरा भी न रह जाएगी, धधकते अंगारे हो जाओगे; क्योंकि राख तो ढांक लेती है, जब तुम्हारे भीतर कोई ढांकने वाली चीज न रहेगी, तुम बिलकुल अनढंके हो जाओगे, खुले, जागे, होशपूर्वक, तो तुम जान पाओगे उस परम नियम को, ताओ को, ऋत् को।
लाओत्सु का ताओ है परम नियम जीवन का; साक्षी है उसे जानने की प्रक्रिया, साधन, विधि, मार्ग । और जिसे मैं तथाता कहता हूं, वह है जिसने पा लिया उसे, जो ताओ के साथ एक हो गया, जो उस परम नियम के साथ निमज्जित हो गया। जिसमें और उस परम नियम में अब कोई भेद न रहा;