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इस बार ठहरो। जल्दी मत करो। प्रतीक्षा करो। आने दो उत्तर को भीतर से जैसे बीज टूटता और अंकुर भीतर से आता है-ऐसे ही तुम टूटो और अंकुर को भीतर से आने दो। खिलने दो तुम्हारे वृक्ष को। लगने दो फूल। वही फूल तुम्हारा उत्तर होगा। उसके पहले कोई उत्तर नहीं है। उसके पहले सब उत्तर व्यर्थ हैं।
पूछते हो : 'दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें?'
वही जवाब दो जो तुम्हारी वास्तविकता है। कहो कि लेबिल तो सब उखड़ गये; न अब मैं हिंदू हूं, न हिंदुस्तानी, न जैन, न बौद्ध, न सिक्ख, न पारसी। मेरा नाम भी कामचलाऊ है। राम कहो कि रहीम कहो-चलेगा। मेरा नाम कामचलाऊ है।
देखते हैं, संन्यास मैं देता हूं तो नाम बदल देता हूं! नाम सिर्फ इसलिए बदल देता हूं ताकि तुम्हें पता चल जाये कि नाम तो सिर्फ कामचलाऊ है। किसी भी नाम से काम चल जाता है। कामचलाऊ है, काम चलाने के लिए है। कोई नाम चाहिए, नहीं तो दुनिया में जरा मुश्किल होगी। पोस्टमैन कहां तुम्हें खोजेगा बिना नाम के? कोई चिट्ठी कैसे लिखेगा बिना नाम के? बैंक में जाओगे तो खाता कैसे खोलोगे बिना नाम के? मुश्किल होगी। व्यावहारिक है। नाम एक व्यावहारिक सत्य है, पारमार्थिक सत्य नहीं। तो नाम बदल देता हूं-सिर्फ यही याद दिलाने को कि देखो यह पुराना नाम ऐसे बदल जाता है क्षण में। इसमें कुछ मूल्य नहीं है। यह नया दे दिया। नये से काम चला लेना। यह तो पुराने का लंबे, तीस-चालीस साल तुमने उपयोग किया था, तुम उसके साथ तादात्म्य कर लिये थे। उसे खिसका दिया। यह तो सिर्फ इसलिए, ताकि तुम्हें पता चल जाये कि अरे, नाम तो कोई भी काम दे देता है। कोई फर्क नहीं पड़ता। अ, ब, स, द से भी काम चल जायेगा। नंबर से भी काम चल जायेगा।
और इस बात का खतरा है कि जिस तरह संख्या दुनिया में बढ़ रही है, जल्दी ही नाम से काम न चलेगा, नंबर ही रखने पड़ेंगे, जैसा मिलिट्री में रखते हैं। क्योंकि नाम बहुत पुनरुक्त होते हैं। नामों की सीमा है। वही नाम, वही नाम-उससे झंझट बढ़ती है। थोड़ी संख्या थी तब ठीक था। अब इतनी विराट संख्या के लिए नये नाम कहां से लाओगे? तो नंबर...।
नंबर से भी काम चल जायेगा। बी-३00१–चलेगा। ए-२००५–चलेगा। क्या कठिनाई है? एक लिहाज से अच्छा भी होगा। बी-१000३ ज्यादा सुखद है। न हिंदू का पता चलता, न मुसलमान का, न ईसाई का। कुछ पता नहीं चलता कि हिंदुस्तानी है कि चीनी है, कि जापानी है। ज्यादा शुद्ध है, कम विकृत है। ब्राह्मण है कि शूद्र है-कुछ पता नहीं चलता। अच्छा होगा।
नाम इसीलिए मैं बदल देता हूं ताकि तुम्हें स्मरण आ जाये कि नाम कोई बड़ी मूल्यवान चीज नहीं है, कोई संपत्ति नहीं है। खेल है। खेल-खेल में बदल देता हूं। इसलिए बहुत आयोजन भी नहीं करता। __ मेरे पास कुछ लोग आकर कहते हैं। वे कहते हैं, संन्यास आप ऐसे ही दे देते हैं! और कहीं तो दीक्षा होती है तो कितना बैंड-बाजा बजता और स्वागत-समारोह, रथ-यात्रा निकलती, महोत्सव होता, भीड़-भाड़ इकट्ठी होती। आप ऐसे ही दे देते हैं! ___ मैं उनसे कहता हूं : संन्यास को मैं खेल बनाना चाहता हूं, गंभीर नहीं! तुम्हारे अहंकार का आभूषण नहीं बनाना चाहता। नहीं तो संन्यास संन्यास ही न रहा। बैंड-बाजे बजे, तो जिसको बैंड-बाजे बजवाने हों, वह संन्यास ले लेगा। जुलूस निकला, लोगों ने आ कर चरण छुए, फूलमालाएं
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4