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न, किसी ने कोई नकल तो नहीं की, कोई धोखाधड़ी तो नहीं है ? इसके पहले कि मैं खरीदूं, मैं तुमसे पूछ लेना चाहता हूं।
पिकासो ने पेंटिंग की तरफ देखा और कहा कि झंझट में पड़ना मत, यह सब नकल है, यह असली नहीं है।
पिकासो की प्रेयसी पास बैठी थी, वह बड़ी चौंकी। उसने कहा: 'रुको! तुम होश में हो ?' पिकासो से कहा: 'यह चित्र तुमने मेरी आंखों के सामने बनाया, मुझे भली-भांति याद है, यह चित्र तुम्हारा ही बनाया हुआ है।'
पिकासो ने कहा: 'मैंने कब कहा कि मैंने नहीं बनाया, लेकिन यह नकल है।'
अब और उलझन हो गई। पत्नी ने कहा : 'तुमने ही बनाया और नकल ! तुम कह क्या रहे हो ?' पिकासो ने कहा : 'मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैं ऐसा चित्र पहले भी बना चुका, फिर यह दुबारा बनाया। यह दुबारा मैंने बनाया कि किसी और ने बनाया, क्या फर्क पड़ता है? यह मौलिक नहीं है। यह पुनरुक्ति है। मेरे हाथ से ही हुई पुनरुक्ति, लेकिन यह मौलिक नहीं है। ऐसा चित्र मैं पहले बना चुका हूं। यह फिर पुनरुक्ति है । पुनरुक्ति तो मौलिक नहीं होती । '
तो हम पिकास से आशा करते हैं कि वह जो हर चित्र बनाये, वह ऐसा अनूठा हो कि पुराने चित्रों भिन्न हो । कवि से हम आशा करते हैं, एक ही गीत न गाये चला जाये ।
मेरे गांव में एक कवि हैं। एक ही कविता उन्होंने लिखी है, वह भी पता नहीं चुराई या क्या किया । क्योंकि जो एक ही लिखता है, वह संदिग्ध है। अगर कवि थे तो कभी तो दूसरी लिखते। एक ही कविता जानते हैं वे : 'हे युवक!' बस कुछ युवक के संबंध में एक कविता है । और उनसे पूरा गांव परेशान है। क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता कि वे कवि-सम्मेलन में उपस्थित न हो जायें और उनको वह 'हे युवक' कविता सुननी ही पड़ेगी।
गांव की यह परेशानी जब मैं छोटा था तभी मुझे समझ में आ गई। तो कोई भी कवि सम्मेलन हो, मैं उनके घर जा कर खबर कर आता कि कवि सम्मेलन हो रहा है और आपको बुलाया है। ऐसा बार-बार जब मैंने किया, कहीं भी कवि सम्मेलन हो, कुछ भी हो, मैं उनको बुला आता। और कभी-कभी तो ऐसी जगह भी कि जहां कोई कवि सम्मेलन नहीं, कोई सभा हो रही, कुछ हो रही, मैं उनको निमंत्रण कर आता कि आप आइये और लोगों को बड़ी कविता की इच्छा है। एक दिन मुझसे कहने लगे कि तुम मालूम होते हो, मेरे बड़े प्रेमी हो, तुम्हीं आते हो हमेशा ! और ऐसी सभाओं में उनकी कविता पढ़वा देता जहां कि लोग सिर ठोंक लेते, क्योंकि वे आये नहीं थे यह सुनने ।
मैं पहले उनको निमंत्रण दे आता, फिर मंच के पास — छोटा गांव - मंच के पास खड़ा हो जाता। जैसे ही वे आते, मैं उनसे कहता : 'वकील साहिब, आइये - आइये!' मंच पर चढ़ा देता। अब कोई गांव में कह भी नहीं सकता। वे थे वकील, तो कोई झगड़ा-झांसा भी नहीं कर सकता। उनको मंच पर चढ़ा कर बिठा देता । फिर भीड़ में जा कर वहां से चिट लिख कर भेजने लगता कि एक कविता होनी चाहिए, वकील साहिब की एक कविता होनी चाहिए। सारा गांव जानता कि मेरे अलावा उस कविता को कोई नहीं सुनना चाहता है। अगर सभापति मेरी चिटों पर कोई ध्यान न देते तो मैं बीच में खड़ा हो जाता कि जनता वकील साहिब की कविता सुनना चाहती है। अब जनता यह कह भी नहीं सकती कि कोई नहीं
संन्यास-सहज होने की प्रक्रिया
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