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में आता है। खो तो वही जीभ पर आता है। देखो तो उसी के दर्शन होते हैं। सुनो तो उसी की पगध्वनि सुनाई पड़ती है। कुछ भी करो... श्वास लो, तो वही तुम्हारी श्वास में भीतर जाता। सूरज उगता तो वही उगता। रात आकाश तारों से भर जाता तो उसी से आकाश भर जाता है। फूल खिलते हैं तो वही खिलता है। पक्षी चहचहाते हैं तो उसी की चहचहाट है।
जब सारी इंद्रियां स्वच्छ होती सभी तरफ से उस एक का अनुभव होने लगता है । जितनी इंद्रियां अस्वच्छ होती हैं उतना ही अनुभव नहीं हो पाता।
यह सूत्र खयाल रखना
तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यमेकाकी रमते तु यः ।
और जिस व्यक्ति की इंद्रियां स्वच्छ हो गईं और जिसे उस एक का सब तरफ अनुभव होने लगा, वही एकाकी रमण कर सकता है, क्योंकि अब दूसरा बचा ही नहीं ।
इस एकाकी रमण का अर्थ भी समझो। एकाकी का अर्थ अकेलापन नहीं होता। एकाकी का अर्थ होता है : : एक-पन; अकेलापन नहीं । अकेलेपन का अर्थ होता है : लोनलीनेस । एकाकी का अर्थ होता है : अलोननेस। अकेलेपन का अर्थ होता है: दूसरे की याद आ रही है; दूसरा होता तो अच्छा होता। अकेलेपन का अर्थ होता है: दूसरे की मौजूदगी नहीं है, खल रही है, खाली-खाली लग रही है कोई जगह, बेचैनी हो रही है। बैठे हैं अकेले, लेकिन दूसरे की पुकार उठ रही है। तुम जंगल भाग जाओगे, किसी से बात करने को न मिलेगा तो भगवान से ही बात करोगे; मगर वह तुमने दूसरा पैदा कर लिया। तुम अकेले न रहे। अकेलेपन में आदमी भगवान से ही बात करने लगेगा। उसी को तो तुम प्रार्थना कहते हो। वह बातचीत है। तुमने फिर एक कोई पैदा कर लिया, जिससे बातचीत होने लगी। एक तरह का पागलपन है यह बातचीत ।
तुमने पागलखाने में जा कर देखा ! तुम देखोगे कि कोई पागल बैठा है अकेला और बात कर रहा है। तुम हंसते हो; लेकिन जब कोई प्रार्थना करता है तब तो तुम नहीं हंसते ! यह किससे बात कर रहा है ? पागल पर तुम हंसते हो क्योंकि तुम्हें कोई दिखाई नहीं पड़ता और यह किसी से बात कर रहा है। और तुम जब मंदिर में हाथ जोड़ कर कहते हो कि 'हे पतितपावन, मुझ पर कृपा करो' – तुम किससे बात कर रहे हो ? जब तक तुम जानते हो कि परमात्मा दूसरा है, दूजा है जिससे बात हो सकती हैं, वार्ता हो सकती है— तब तक तो तुम्हें परमात्मा का पता ही नहीं। परमात्मा दूजा नहीं है— तुम्हारा होना है । तुम हो ! अहं ब्रह्मास्मि !
तो जब ऐसा अनुभव होता है कि एक ही है, मैं और तू का विभाजन गिर गया - तब जो घटना घटती है, वह जो फूल खिलता है, वह है एकाकी, अलोननेस! तब वहां दूसरे की गैर मौजूदगी नहीं खलती, वहां अपनी मौजूदगी में रस आता है। अपनी मौजूदगी में उत्सव होता है। तुम कुछ बोलते ही नहीं— बोलने को कौन बचा? किससे बोलना है ? कौन बोले ? सब बोल खो जाता है। अबोल हो जाते हो।
तुमने ऐसे वचन सुने होंगे जिनमें कहा गया है कि प्रभु की कृपा हो जाये तो जो बोलते नहीं वे बोलने लगते हैं और जो लंगड़े हैं वे दौड़ने लगते हैं। हालत बिलकुल उलटी है । अष्टावक्र से पूछो, अष्टावक्र कुछ और कहते हैं । अष्टावक्र का सूत्र तुम्हें याद है? कुछ ही दिन पहले हम पढ़ रहे थे।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4