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पहनायीं और लोगों ने कहा, तुम धन्यभागी हो, किस महापुण्य का परिणाम कि तुम इस यात्रा पर निकल गये। हम हैं दीन-हीन पापी कि हम अभी भी संसार में सड़ रहे हैं; नाली के कीड़े ! तुम तो देखो आकाश में उड़ने लगे। हो गये हंस ! – जिनको इस तरह के अहंकार की पूजा करवानी है वे जरूर उस मार्ग पर चले जायेंगे जहां पूजा होती है।
मेरे देखे अगर लोग संन्यासियों को बहुत सम्मान देना बंद कर दें तो तुम्हारे सौ में से निन्यानबे संन्यासी वापिस दुनिया में लौट आयें। वे सम्मान के कारण वहां अटके हैं। इसलिए मैं संन्यासियों को बिलकुल सामान्य, खेल की तरह — कोई स्वागत नहीं, कोई समारंभ नहीं, चुपचाप तुम्हारा नाम बदल दिया। किसी को कानोंकान खबर न हुई । तुम्हारे कपड़े बदल दिये, कानोंकान खबर न हुई। और तुमसे मैं कोई विशिष्ट आचरण की भी आकांक्षा नहीं रखता। क्योंकि विशिष्ट आचरण हमेशा अहंकार का
भूषण बन जाता है। मैं तुमसे कहता हूं, कोई हर्जा नहीं । होटल में बैठ कर खाना खा लिया, कोई हर्जा नहीं। संन्यासी कहता है : हम होटल में बैठ कर खाना खायें! कभी नहीं! हमारे लिए विशेष भोजन बनना चाहिए। ब्राह्मणी पीसे, फिर बनाये। सब शुद्ध हो, तब हम लेंगे। हम कोई साधारण व्यक्ति थोड़े ही हैं !
नहीं, मैं तुम्हें बिलकुल साधारण बनाना चाहता हूं। तुम्हें मैं ऐसा साधारण बना देना चाहता हूं कि तुम्हारे भीतर अहंकार की रेखा न बने। तुम ऐसे ही जीना जैसे और सब लोग जी रहे हैं। कुछ विशिष्टता नहीं ।
इसीलिए तुम्हें लग रहा है कि लापता हो गया। पुराना नाम गया। पुराना ठिकाना गया। पुरानी जात-पांत गयी। और नयी कुछ मैंने बनायी नहीं । नया तुम्हें कुछ दिया नहीं । खाली तुम्हें छोड़ दिया। क्योंकि इसी खालीपन में फूटेगा तुम्हारा बीज और अंकुर उठेगा। तुम चाहते हो मैं तुम्हें कुछ दे दूं । मगर मैं तुम्हें कुछ दे दूं तो मैं तुम्हारा दुश्मन। फिर मैंने जो तुम्हें दिया वह तुम्हारी छाती पर पत्थर बन कर बैठ जायेगा। फिर तुम उसको पकड़ लोगे। फिर वह तुम्हारा पता हो गया। फिर तुम चूके। फिर आत्मज्ञान से चूके।
आत्मज्ञान के लिए प्रतीक्षा चाहिए। जब तक पता न हो, कोई पूछे तो उससे कहना: क्षमा करें, जो-जो मुझे पता था वह गलत सिद्ध हुआ और जो-जो ठीक है उसकी मैं राह देख रहां हूं। जब आयेगा, आ कर आपको खबर कर दूंगा - अगर कभी आया । अगर कभी न आया तो क्षमा करें। मुझे स्वीकार कर लें ऐसा ही जैसा मैं हूं - लापता ।
ईमानदार रहना । प्रामाणिक रहना ।
हमें प्रामाणिक रहना किसी ने सिखाया नहीं । हम ऐसी बातों के उत्तर देते हैं जिनका उत्तर हमें पता ही नहीं | बाप बेटे से कहता है : झूठ कभी मत बोलना। और बेटा पूछता है कि ईश्वर है और बाप कहता है : हां, है! अब इससे बड़ी झूठ तुम कुछ बोलोगे ? तुम्हें पता है ईश्वर के होने का ? किस अकड़ से तुम कह रहे हो ? इस भोले-भाले बेटे के प्रश्न को किस बुरी तरह मार रहे हो! इसके प्रश्न
तो एक सचाई थी, तुम्हारा उत्तर सरासर झूठ है । तुम्हें कुछ भी पता नहीं है । और आज नहीं कल इस बेटे को भी पता चल जायेगा कि तुम्हें कुछ पता नहीं। तब इसकी श्रद्धा टूट जायेगी ।
मेरे देखे अगर बच्चे अपने मां-बाप को श्रद्धा नहीं दे पाते तो बच्चे इसके लिए अपराधी नहीं हैं;
साक्षी, ताओ और तथाता
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