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यह तो ऐसा ही हुआ कि मैं स्टेशन पर आऊं और तुमसे पूछें कि श्री रंजनीश आश्रम कहां है? और तुम कहो कि कोरेगांव पार्क में। और मैं तुमसे पूछूं कि कोरेगांव पार्क कहां है? और तुम कहो कि ब्लू डायमंड के पास । मैं पूछूं ब्लू डायमंड कहां है? तुम कहो, इसका कुछ पता नहीं। तो मामला क्या हुआ? जब ब्लू डायमंड का पता नहीं है तो कोरेगांव गड़बड़ हो गया। कोरेगांव गड़बड़ हो गया तो आश्रम...! तो वहां पहुंचें कैसे ? तुम कहोगे, अब यह आप समझो। बाकी यहां तक हमने बता दिया, ब्लू डायमंड तक। लेकिन ब्लू डायमंड क्या है, इसका किसी को कोई पता नहीं। तो यह कुछ जानना हुआ ?
विज्ञान भी धोखा है। जानना तो होता ही नहीं। आज तक कोई बात जानी तो गयी ही नहीं। यह सारा विराट अनजान है, अपरिचित है, अज्ञात है, अज्ञेय है। यहां जानना भ्रम है।
ज्ञान के भ्रम से तुम मुक्त हो जाओ, यह मेरी चेष्टा है। और तुम कहते हो कि 'आपको सुन कर मजा आ जाता है। जान लिया, ऐसा लगता है जान लिया। आयी मुट्ठी में बात।' बस यहीं चूक गये धुआं पकड़ रहे हो । कुछ आयेगा नहीं हाथ में। बाहर जा कर जब मुट्ठी खोलोगे, तुम कहोगे यह तो मामला गड़बड़ हो गया। मुट्ठी में तो कुछ भी नहीं है। एकदम पकड़ लिया था उस वक्त और सब छिटक गया। तुम भ्रांति में पड़ रहे हो ।
मैं तुम्हें ज्ञान नहीं दे रहा हूं। मैं तुम्हें जाग दे रहा हूं। जाग का अर्थ है कि ज्ञान न तो कभी हुआ है, न हो सकता है, न होगा । जाग का अर्थ है : जीवन परम रहस्य है !
वेदों में एक बड़ी अनूठी बात है। 'यह सब क्या है ? ' - ऋषि ने पूछा है ।
'शायद परमात्मा जिसने इसे बनाया वह जानता हो, या कौन जाने वह भी न जानता हो!' यह बड़ी अदभुत बात है । परमात्मा ! वेद का ऋषि कहता है : 'यह सब क्या है ?" 'शायद ! शायद, परमात्मा जानता हो जिसने यह सब बनाया, या कौन जाने वह भी न जानता हो !' बड़े हिम्मतवर लोग रहे होंगे। इसका सार अर्थ हुआ कि परमात्मा को भी पता नहीं है।
असल में जिस चीज का पता हो जाये, वह व्यर्थ हो जाती है। पता ही हो गया तो फिर क्या बचा ? पता चल गया तो परिभाषा हो गयी। इस अस्तित्व की अब तक कोई परिभाषा नहीं हो सकी। कोई कह सका, क्या है ? इसलिए तो बुद्ध चुप रह गये। जब तुम उनसे पूछो ईश्वर है ? वे चुप रह जाते हैं । आत्मा है? वे चुप रह जाते हैं। यह ठीक-ठीक उत्तर दिया बुद्ध ने ! वे कहते हैं : यह बकवास बंद करो आत्मा, ईश्वर की ! कौन जान पाया ? जागो ! जानने की चिंता छोड़ो।
तो एक तो कर्ता की दौड़ है, वह अहंकार की दौड़ है। फिर एक ज्ञान की दौड़ है, वह भी अहंकार की दौड़ है। कर्ता कहता है: अच्छा करो, बुरा मत करो। ज्ञानी कहता है : सत्य को जानो, असत्य को मत जानो। लेकिन दोनों भेद करते हैं। धार्मिक व्यक्ति तो कहता है : जाना ही नहीं जा सकता।
अगर मुझे सुन कर तुम्हें यह समझ में आ जाये कि जाना ही नहीं जा सकता, फिर तुम कैसे खो पाओगे, बताओ ! फिर तुम यहां से चले जाओगे, क्या तुमने यह जो जाना कि नहीं जाना जा सकता, इसे तुम कभी भी खो सकोगे ? फिर यह तुम्हारी संपदा हो गयी। फिर तुम मुट्ठी खोलो कि बंद करो, तुम हिलाओ - डुलाओ हाथ, मुट्ठी खोल कर या बंद करके, यह गिरेगा नहीं। यह तुम्हारी संपदा हो गयी। फिर तुम इसे कैसे छोड़ पाओगे ? कोई उपाय है छोड़ने का ? जानना तो छूट सकता है, भूल
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4