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भीग धरा गमके घन बरसे
पर्वत भीगे
घर छत भीगे
भीगे बन
खेत कुटीझर घन बरसे
घन बरसे
भीग धरा गमके
घन बरसे !
बूंद आ गई है तो मेघ करीब हैं। तक प्रवेश हो जाये !
बूंद पर रुकना मत। बूंद की आहट सुन कर खोल देना अपने प्राण मेघों के लिए, घनों के लिए। हो जाना नग्न, ताकि दूर-दूर तक, गहरे गहरे तक, तुम्हारे अंतरतम
जो भेंट चला था मैं ले कर हाथों में, कबकी कुम्हलाई नैनों ने सींचा उसे बहुत लेकिन वह फिर भी मुरझाई तब से पथ पुष्पों से निर्मित कितनी मालायें सूख चुकीं जिस पग से मैं आया उस पर पाओगे बिखरी बिखराई कुम्हला न सकी मुरझा न सकी लेकिन अर्चन की अभिलाषा ! मैं चुनता हूं हर फूल अटल विश्वास लिए ये पूज न पायें प्रेय चरण लेकिन दुनिया इनकी श्रद्धा को एक समय पूजेगी ही !
बहुत-बहुत जन्मों से तुम न मालूम कितने पूजा के थाल बना कर चल रहे हो, सजा कर चल रहे हो ! बहुत जन्मों से न मालूम कितनी जलती आकांक्षाएं ले कर तुम खोज रहे हो! जब कभी प्रभु का कोई मंदिर करीब तुम्हें दिखाई पड़ेगा, मंदिर का घंटनाद सुनाई पड़ेगा, मंदिर से उठती हुई धूप की धुएं की रेखा तुम्हारी नासापुटों को छुएगी - तुम नाच उठोगे ! तुम्हारी सदा से अर्चना की
अभिलाषा
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थी — हारी बहुत बार, पर हार न पाई – पुनरुज्जीवित हो उठेगी; नये प्राण पड़ जायेंगे। लेकिन वहीं रुक मत जाना। मंदिर के बाहर बहुत रुक गये हैं, इसलिए कहता हूं। मंदिर के भीतर
अष्टावक्र: महागीता भाग-4