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तो फिर... मैं तुमसे कहता हूं : चादर नहीं है। तुम हो चादर। और जब तक तुम बचना चाहते हो तब तक चादर बची है। जिस दिन तुम राजी हो मिटने को, फिर कुछ नहीं बचता, मुक्ति बचती है। मुक्ति तुम्हारी नहीं है, फिर दोहरा दूं । मुक्ति तुमसे बड़ी है, तुमसे विराट है। मुक्ति सागर जैसी है, तुम नदी जैसे संकीर्ण हो ।
पांचवां प्रश्न: आप कहते हैं कि सिर्फ सुन कर प्रभु को उपलब्ध हो सकते हो। आपको सुनते समय मुझे ऐसा लगता है कि सब जान लिया और सुन कर आनंद में डूब जाता हूं। लेकिन कुछ काल के अंतर पर पहले ही जैसा हो रहता । तब ऐसा लगता है कि जाने कैसी मुसीबत फंस गया! पहले ही मजे में था। अब हालत है कि छोड़े छूटता नहीं और पकड़ में भी आने से रहा। इस तड़पन से बचाओ भगवान !
समझो।
पहली बात, तुम कहते हो : 'आप कहते हैं कि सिर्फ सुन कर प्रभु को उपलब्ध हो सकते हो ।'
निश्चित ही । क्योंकि खोया होता तो कुछ और करना पड़ता। सिर्फ सुन कर उपलब्ध हो सकते हो। ऐसा ही मामला है, तुमने दो और दो पांच जोड़ रखे हैं और मैं आया और मैंने कहा कि पागल हुए हो, दो और दो पांच नहीं होते, दो और दो चार होते हैं। तो तुम क्या कहोगे कि 'बस क्या सुन ही दो और दो चार हो जायें? अब मेहनत करनी पड़ेगी, शीर्षासन लगायेंगे, भजन-कीर्तन करेंगे, तपश्चर्या करेंगे, उपवास करेंगे — तब दो और दो चार होंगे।' दो और दो चार होते हैं ! तुम्हारे उपवास इत्यादि से नहीं होंगे। दो और दो चार ही हैं। तुम जब दो और दो पांच लिख रहे हो, तब भी दो और दो चार ही हैं। पांच तुम्हारी ही गलती, तुम्हारी भ्रांति है ।
संसार माया है—अर्थ ः संसार तुम्हारी भ्रांति है, है नहीं। तो सुनने से ही हो सकता है।
'सुनने से ही तुम उपलब्ध हो सकते हो, ऐसा आप कहते हैं। आपको सुनते समय मुझे लगता है। कि सब जान लिया । '
बस वहीं भूल हो गयी । तुम समझे कि सब जान लिया, तो तुम ज्ञाता बन गये, ज्ञानी बन गये, पंडित बन गये । जान लिया! तो चूक हो गयी। अहंकार ने फिर अपने को बचा लिया - जानने में बचा लिया ।
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4