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कहाः यह पलायन है। यह भगोड़ापन है। कहां भागे जा रहे हो? यह कोई क्षत्रिय का गुण-धर्म नहीं।
बुद्ध हंसे और उन्होंने कहाः घर में आग लगी हो तो घर के बाहर आते आदमी को तुम भगोड़ा कहोगे? और वह जो आग के बीच में बैठा है उसको तुम बुद्धिमान कहोगे?
तो उस सारथी ने कहा : लेकिन आग लगी हो तब न?
बुद्ध ने कहाः वही कठिन है, मुझे दिखाई पड़ता है कि आग लगी है; तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता आग लगी है। हमारी भाषाएं अलग हैं। मैं कुछ कह रहा हूं, तुम कुछ समझ रहे हो। तुम कुछ कहते हो, उससे मेरे संबंध टूट गये हैं।
संसार में तृप्ति भी कहां तृप्ति है? सब झूठ है यहां। तुमसे कोई पूछता है, कहो कैसे हो? तुम कहते हो, सब ठीक है। कभी तुमने गौर किया? इस 'सब ठीक' के भीतर कुछ भी ठीक है? कहते होः सब चंगा। इसमें कुछ भी चंगा है? कहने को कह देते हो, लेकिन कभी गौर से देखा, जो कह रहे हो उसमें जरा-सा भी सत्य है, सत्य की झलक भी है? _ नहीं, यहां तुमने जो भी जाना है उसमें तृप्ति नहीं है। तृप्ति यहां हो नहीं सकती। . _तो जब मैंने तुमसे कहा, संसार के प्रति तृप्ति, तो मैंने यह कहा कि संसार पर बहुत ध्यान ही मत दो; ध्यान देने योग्य नहीं है। यहां तो जो है, ठीक है। क्योंकि यहां ठीक कुछ भी नहीं है। इसलिए तुमसे कहता हूं : जो है सो ठीक है। अब इसमें बहुत दौड़-धूप मत करो। दौड़-धूप करके भी ठीक न हो सकेगा। संसार का स्वभाव ही ठीक होना नहीं है।
सुना है मैंने, एक महिला अमरीका के एक सुपर मार्केट में खिलौने खरीद रही थी। बच्चों का एक खिलौना है, जिसमें टुकड़े-टुकड़े हैं और बच्चे को जमाना है। वह जमा-जमा कर देखती है, लेकिन वह जमता नहीं। उसका पति भी खड़ा है, वह गणित का प्रोफेसर है। वह भी जमाने की कोशिश करता है, लेकिन वह जमता नहीं। आखिर उन दोनों ने सिर-पच्ची करने के बाद दूकानदार से पूछा कि यह मामला क्या है? मैं गणित का प्रोफेसर हूं, मैं इसे जमा नहीं पा रहा, मेरा छोटा बेटा कैसे जमायेगा? ___ वह दूकानदार हंसने लगा। उसने कहा, यह खिलौना बनाया ही इस तरह गया है कि यह जम नहीं सकता। जमाने के इरादे से बनाया नहीं है। यह तो खिलौना इस आधुनिक जगत का सबूत है, प्रतीक है, कि कितनी ही कोशिश करो, जमेगा नहीं। न तुमसे जमेगा, न तुम्हारे बेटे से। जम ही नहीं सकता, क्योंकि यह बनाया ही नहीं गया है जमने के लिए।
संसार जमने के लिए बना नहीं है। जम जाता तो तुम परमात्मा को खोजते ही नहीं। परमात्मा की खोज क्यों पैदा होती है? क्योंकि संसार नहीं जमता। अगर जम जाता तो बुद्ध खोजते? अगर जम जाता तो महावीर खोजते? जम जाता तो अष्टावक्र खोजते? अगर संसार जम जाये तो परमात्मा गैर-अनिवार्य हो गया!
इसे तुम समझो। अगर संसार में तृप्ति संभव हो सके तो धर्म व्यर्थ हो गया। फिर धर्म का अर्थ क्या है ? संसार में तृप्ति नहीं हो सकती है, इसलिए धर्म की सार्थकता है। तो हम तृप्ति को कहीं और खोजते हैं।
इसलिए मैंने तुमसे कहा कि जो भी है यहां-थोड़ा या ज्यादा इससे राजी हो जाओ। राजी होने का मतलब यह नहीं है कि इससे तृप्ति मिल जायेगी। इससे राजी होने का मतलब यह है कि अब इसमें
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4