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और तृष्णा में बीज है संसार का । फिर जहां तृष्णा है वहां स्वभावतः चुनाव पैदा होता है - क्या करें, क्या न करें ! क्योंकि तृष्णा जिसको करने से भर जाये, वही करें। स्वभावतः भेद पैदा होता है। वही करें, जिससे तृष्णा पूरी हो; वह न करें, जिससे पूरी न हो; उस रास्ते पर चलें, जिससे पहुंच जायेंगे भविष्य की मंजिल पर उस रास्ते पर न चलें जिससे भटक जायेंगे ।
और यहां कोई मार्ग नहीं है । अष्टावक्र कोई मार्ग प्रस्तावित ही नहीं करते । अष्टावक्र तो कहते हैं कि तुम जरा भीतर आंख खोलो; तुम जहां हो, मंजिल पर हो !
रिझाई, एक झेन फकीर, जापान के एक तीर्थ - पहाड़ पर तीर्थ था— उसके नीचे ही राह के किनारे विश्राम कर रहा था। एक दिन, दो दिन, वर्षों हो गये। यात्री आते-जाते । फिर तो लोग पहचानने लगे, जानने भी लगे कि वह वहीं पड़ा रहता है वृक्ष के नीचे। लोग उससे पूछते कि रिंझाई, तुम पहाड़ पर ऊपर नहीं जाते तीर्थयात्रा को ? रिझाई हंसता और वह कहता : 'आये तो हम भी तीर्थयात्रा को थे, लेकिन इस झाड़ के नीचे बैठे-बैठे पता चला कि तीर्थ भीतर है; फिर हम यहीं रुक गये, अब कहीं जाने को न रहा।' लोग कहते कि चलो हम तुम्हें ले चलें वहां । लोगों को दया आती कि कहीं ऐसा तो नहीं कि बूढ़ा हो गया फकीर, पहाड़ चढ़ नहीं सकता। लोग कहते : 'कांवर कर दें? कंधे पर उठा लें ?" प्यारा आदमी था, लेकिन वह कहता कि नहीं, तुम्हीं जाओ, क्योंकि हम तो वहां हैं ही। तुम जहां जा रहे हो, हम वहीं हैं । और तुम जा कर वहां कभी न पहुंचोगे। अगर तुम्हें भी पहुंचना हो तो कभी लौट कर आ जाना, यहीं बैठ जाना ।
भीतर है। सत्य भीतर है, क्योंकि सत्य स्वभाव है। इस बात को जितनी बार दोहराया जाये, उतना कम है। क्योंकि तृष्णा का अर्थ है : सत्य मिला नहीं है, पाना है । और जिन्होंने पाया उनकी घोषणा है : सत्य तुम्हारा स्वभाव है; पाना नहीं है, मिला हुआ । बस इसकी प्रत्यभिज्ञा, रिकग्नीशन, इसकी पहचान पर्याप्त है।
स्पृहा जीवति यावद्वै निर्विचार दशास्पदम् ।
में
और जब तक तृष्णा रहती है, स्पृहा रहती है, वासना रहती है, तब तक निश्चित ही मनुष्य विवेक पैदा नहीं होता, बोध पैदा नहीं होता। अविवेक की दशा रहती है।
'अविवेक' शब्द को भी समझ लो ! अविवेक का अर्थ है : चंचल मन, आंदोलित मन; लहरों से भरा हुआ चित्त; झील पर लहरें और तरंगें । चंचल अवस्था अविवेक है। अचंचल दशा - लहर खो गई, शांत हो गई, हवा न चली, मौन हो गया, झील दर्पण बन गई — बोध की दशा है, बुद्धत्व की दशा है।
बुद्ध ने कहा है : जिस दिन तुम दर्पण की भांति हो जाओ, कुछ कंपे न, तो फिर जो है वही तुम झलकने लगेगा; फिर जो है, वही तुम्हारी प्रतीति में आने लगेगा। अभी तो तुम इतने कंप रहे हो कि जो है वह कुछ पकड़ में आता नहीं; कुछ का कुछ पकड़ में आ जाता है।
ऐसा ही समझो कि कोई आदमी कैमरा ले कर दौड़ता चले और चित्र उतारता चले। फिर जब चित्र निकाले जायें, देखे जायें, तो कुछ पकड़ में न आये, सब चीजें गड्ड-बड्ड हों, कुछ साफ न हो — ऐसी हमारी दशा है। हम दौड़ते हुए, भागते हुए, जीवन को देखने की कोशिश कर रहे हैं। रुको, ठहरो। दौड़ो - भागो मत! ऐसे रुक जाओ कि क्षण भर को सब रुक जाये, सब गति ठहर जाये; अगति
साक्षी आया, दुख गया
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