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हिलाओ - डुलाओ, वह करवट बदल लेता है। सोया होता तो शायद जाग भी जाता; मगर वह जागा हुआ पड़ा है, आंख बंद किए हुए पड़ा है, उठना नहीं चाहता है, उठने की आकांक्षा नहीं है - तो तुम कैसे जगाओगे ? जो सोने का धोखा दे रहा है वह कैसे जागेगा? और तुम सोने का धोखा दे रहे हो । तुम्हारे भीतर का जो आत्यंतिक केंद्र है वह जागा ही हुआ है; वह कभी सोया नहीं; सोना वहां घटता नहीं, घट नहीं सकता; उसका स्वभाव जागना है। चैतन्य का अर्थ जागना है। तो तुम सोने का बहाना कर रहे हो। अब बहाने कर रहे हो, तुम्हारी मर्जी!
अष्टावक्र कहते हैं:
हरो यद्युपदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा ।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते ।।
जब तक तू सब न भूल जाये जो बाहर से सीखा, तब तक स्वास्थ्य, शांति, सत्य का अनुभव न होगा ।
शिव का अर्थ है : जिनके हाथ में जगत के विध्वंस की क्षमता है। विष्णु का अर्थ है: जिनके हाथ में जगत को चलाने की क्षमता है। ब्रह्मा का अर्थ है: जिनके हाथ में जगत को बनाने की क्षमता है। जिसने जगत बनाया वह भी सत्य को नहीं बना सकता तुम्हारे लिए । जगत तो माया है, सपना है— सपना बना लिया ब्रह्मा ने, लेकिन सत्य न बना सकेंगे। और जो इस सपने को चला रहा है, सम्हाले हुए है, साधे हुए है, विष्णु, इस विराट लीला को जो चला रहा है - वह भी सत्य को जगाने • में समर्थ न हो सकेगा। इतना विस्तार जिसके वश में है, तुम्हारे ऊपर उसका कोई वश नहीं। तुम उसके पार हो। और जो सारे जगत को नष्ट कर सकता है, वह भी तुम्हारे अज्ञान को नष्ट नहीं कर सकता — शिव भी तुम्हारे अज्ञान को नष्ट नहीं कर सकता । अष्टावक्र यह कह रहे हैं कि तुम्हें बाहर से सब भांति मुक्त हो जाना पड़ेगा।
सदगुरु वही है जो तुम्हें बाहर से मुक्त कर दे; जो तुम्हें तुम्हारे ऊपर फेंक दे; जो तुम्हें तुम्हारे ऊपर छोड़ दे; जो तुमसे कहे, भूल जाओ जो बाहर से सीखा, छोड़ दो शास्त्र जो बाहर के हैं, छोड़ दो सिद्धांत जो बाहर के हैं, न रहो हिंदू न मुसलमान न ईसाई न जैन न बौद्ध । तुम तो भीतर उतर जाओ, जहां कोई सिद्धांत नहीं, कोई शास्त्र नहीं, कोई शब्द नहीं । तुम तो उस निर्विचार में डूब जाओ। तुम तो वहां जागो जहां तुम्हारी आत्यंतिक प्रज्ञा का दीया जल रहा है। वहीं से केवल वहीं से और केवल वहीं से रूपांतरण संभव है।
यह सुनते हैं ! इसलिए मैं कहता हूं बार-बार कि कृष्णमूर्ति जो आज कह रहे हैं वह अष्टावक्र की प्रतिध्वनि है। कृष्णमूर्ति कहते हैं: कोई गुरु नहीं ! अनेक लोगों को लगता है कि यह तो बड़ी शास्त्र-विपरीत बात है! कहां शास्त्र - विपरीत बात है ? शास्त्रों का शास्त्र कह रहा है : 'कोई गुरु नहीं ! ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी नहीं । '
लेकिन इसका यह अर्थ मत समझ लेना कि अष्टावक्र की गीता का कोई उपयोग नहीं । यही उपयोग है। शास्त्र वही जो तुम्हें शास्त्र से भी मुक्त करा दे। गुरु वही जो तुम्हें गुरु से भी मुक्त करा
दे
फ्रेडरिक नीत्शे के महाग्रंथ 'दस स्पेक जरथुस्त्रा' में, जब जरथुस्त्र अपने शिष्यों से विदा होने लगा
साक्षी आया, दुख गया
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