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खोलता; न सोता, न जागता। अपने से कुछ करता ही नहीं। कर्ता-भाव सारा समाप्त हो गया। ___ तुम जरा सोचो तो इस परमदशा की बात। सोच कर ही तुम आह्लादित होने लगोगे। काश तुम्हारा कर्ता विसर्जित हो जाये, तो कैसी चिंता! चिंता पैदा कैसे होगी? चिंता कर्ता की छाया है। कर्ता गया कि चिंता गयी। चिंता तो तुम छोड़ना चाहते हो, कर्ता नहीं छोड़ना चाहते। इसलिए चिंता कभी छूटती नहीं। और एक नयी चिंता पकड़ जाती है कि चिंता कैसे छूटे। और चिंता में नया जोड़ हो जाता है।
पूर्वीय मनोविज्ञान मनुष्य की चेतना की चार दशाएं मानता है। पहली दशा जागृति, जिसको हम जागृति कहते हैं। जागृति में अहंकार होता, कर्ता का भाव होता, मैं की बड़ी पकड़ होती।
दूसरी अवस्था को स्वप्न कहता है। स्वप्न में अहंकार क्षीण हो जाता है। रोज तुम जब रात सो जाते, सपने में तुम्हारा अहंकार क्षीण हो जाता है। ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं रह जाता, शूद्र शूद्र नहीं रह जाता। राष्ट्रपति को पता नहीं रहता, राष्ट्रपति हूं; चपरासी को पता नहीं रहता कि चपरासी हूं। अस्मिता क्षीण हो जाती है। बिलकुल समाप्त नहीं हो जाती-कुछ-कुछ झलक मारती रहती है। धूमिल हो जाती है। अहंकार तो नहीं रहता, लेकिन अहंकार का प्रतिबिंब रह जाता है। यह स्वप्न दूसरी दशा है।
तीसरी दशा है सुषुप्ति-जब स्वप्न भी खो गये, कुछ भी न बचा। तब अहंकार का अभाव हो जाता है। तब तुम्हें पता ही नहीं रहता कि मैं हूं। कर्ता का भी अभाव हो जाता है। तुम करने वाले नहीं रह जाते। श्वास चलती है, चलती है। भोजन पचता है, पचता है। खून बहता है, बहता है। तुम कुछ करने वाले नहीं रह जाते। तुम कुछ नहीं करते सुषुप्ति में। मैं की छाया भी नहीं रह जाती, जैसी सपने में थी। जागृति में मैं बहुत मजबूत था, सपने में छाया थी, सुषुप्ति में छाया भी खो गयी। एक अंधकार फैल जाता है। सुषुप्ति एक नकारात्मक दशा है, निगेटिव। कुछ भी नहीं होता। जैसे तुम नहीं रहे, ऐसा हो जाता है।
फिर चौथी दशा है, परमदशा, अहोदशा। उसका नाम है : तुरीय। तुरीय जागृति जैसी जाग्रत और सुषुप्ति जैसी शांत। तुरीय का अर्थ है, जैसी गहरी नींद में शांति होती है ऐसी शांति। लेकिन गहरी नींद में अंधकार होता है, तुरीय में प्रकाश होता है। गहरी नींद में अहंकार खो जाता है, तुरीय में भी अहंकार खो जाता है। लेकिन गहरी नींद में निरहंकार पैदा नहीं होता। गहरी नींद में सिर्फ अहंकार खो जाता है। वह नकारात्मक स्थिति है। तुरीय की अवस्था में निरहंकार-भाव पैदा होता है। वह विधायक स्थिति है। बोध जगता है। होश जगता है। अकर्ता का भाव स्पष्ट हो जाता है। तुरीय अवस्था में व्यक्ति परमात्मा का संपूर्ण रूप से निमित्त हो जाता है। व्यक्ति मिट जाता है और परमात्मा ही शेष रहता है।
यह चौथी ही अवस्था का वर्णन है, तुरीय अवस्था का वर्णन हैअहो क्वापि परदशा मुक्तचेतसः वर्तते।।
कैसी धन्य दशा है मुक्त चैतन्य की! कैसी उत्कृष्ट, कैसी परम! जहां न तो वह जागता, न सोता, न पलक को खोलता, न बंद करता-और सब अपने से होता है। सब नैसर्गिक! सब सहज!
'मुक्त पुरुष सर्वत्र स्वस्थ, सर्वत्र विमल आशय वाला दिखायी देता है और वह सब वासनाओं से रहित सर्वत्र विराजता है।'
सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः! वह जो मुक्त पुरुष है तुम उसे हर स्थिति में, हर परिस्थिति में स्वयं में स्थित पाओगे। तुम उसे
शून्य की वीणा : विराट के स्वर की
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