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गौर से देखो तो तुम पाओगे कि भोग में कभी सुख होता नहीं। भोग में तो एक तनाव है, उत्तेजना है। भोग में तो एक ज्वरग्रस्त दशा है. शांति नहीं। और शांति के बिना सुख कहां! जो आदमी धन इकट्ठा कर रहा है, वह सोचता है कि इकट्ठा कर लूंगा तो सुख होगा। उसका सुख सदा भविष्य में होता है। कभी होता नहीं, वह कितना ही इकट्ठा कर ले, इकट्ठा करने में दुख बहुत होता है, क्योंकि चिंता करनी पड़ती है, बेचैन रहना पड़ता है, नींद खो जाती है, अल्सर पैदा हो जाते हैं, सिरदर्द बना रहता है, रक्तचाप बढ़ जाता है, हृदय के दौरे पड़ने लगते हैं। __अमरीका में तो वे कहते हैं कि जिस आदमी को चालीस साल की उम्र तक हृदय का दौरा न पड़े वह असफल आदमी है। सफल आदमी को तो पड़ना ही चाहिए। क्योंकि चालीस साल और सफल आदमी को हृदय का दौरा न पड़े। __ मेरे गांव में ऐसा समझा जाता था कि मारवाड़ी जब एक-दूसरे के यहां विवाह करते हैं तो वे पता लगा लेते हैं कि कितनी बार दिवाला डाला। क्योंकि दिवाले डालने से पता चलता है कि कितना धन होगा। धनी आदमी का लक्षण है : कितनी बार दिवाला डाला। अगर दिवाला नहीं डाला तो हालत खराब है, खस्ता है।
ठीक ऐसा अमरीका में कुछ दिन में लोग जरूर पूछने लगेंगे कि कितने हार्ट-अटैक हुए? नहीं हुए तो क्या भाड़ झोंकते रहे? करते क्या रहे? नाम-धाम, पद-प्रतिष्ठा...हार्ट-अटैक तो होना ही चाहिए। रक्तचाप कितना है? साधारण, तो जिंदगी गंवा रहे हो! कुछ कमाना नहीं है? यह साधारण रक्तचाप तो आदिम, आदिवासियों का होता है! और असफल आदमी या भिखमंगे, आवारागर्द लोग, इनको नहीं होते हृदय के दौरे वगैरह।
चिंतातुर आदमी, जो बड़ी महत्वाकांक्षा से भरा है, उसके पेट में अल्सर तो हो ही जाने चाहिए। घाव तो हो ही जाने चाहिए। क्योंकि चिंता घाव बनाती है; चिंता एसिड की तरह गिरती है पेट में और घाव बनाती है। तो सभी महत्वाकांक्षी अल्सर से तो ग्रस्त होंगे ही। तो जो आदमी धन के लिए दौड़ता है, वह सुख तो कभी नहीं पाता। हां, सुख की आशा में दौड़ता है, यह सच है। सुख की आशा में दुख बहुत पाता है। पाता दुख है; सुख की आशा रखता है। और सुख की आशा के कारण सब दुख झेल लेता है। कहता है, कोई हर्जा नहीं; आज अल्सर है, आज हृदय का दौरा पड़ा, आज रक्तचाप बढ़ गया, कोई फिक्र नहीं, कल तो सब ठीक हो जाएगा। कल सब ठीक हो जाएगा; नहीं तो अगले महीने, नहीं तो अगले वर्ष! कभी न कभी तो सब ठीक हो जाएगा। लोग कहते हैं कि देर हो सकती है, अंधेर थोड़े ही है। कभी न कभी तो प्रभु प्रसन्न होगा। कभी तो हमारे भाव को समझेगा, हमारी चेष्टा को समझेगा; कभी तो पुरस्कार मिलेगा।
अष्टावक्र कहते हैं : ‘सारे धन कमा कर मनुष्य अतिशय भोगों को पाता है।' तो भोग का फिर क्या अर्थ हुआ? ऐसा समझो।
मैं एक घर में मेहमान हुआ। कलकत्ता के बड़े से बड़े धनी व्यक्ति थे। मैं ग्यारह बजे रात सो जाता हूं। तो जब मैं सोने के लिए जाने लगा तो वे बोले कि आप सोएंगे अब? तो मैंने कहा, क्या इरादा है? उन्होंने कहा, नहीं, मुझे तो नींद ही नहीं आती। तो मैं तो सोचता था, कुछ और देर बैठेंगे, बात करेंगे। मैंने कहाः नींद नहीं आती, क्या तकलीफ है? अच्छा बिस्तर उपलब्ध नहीं है, अच्छी
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4