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ऐसा जान लेता है जो, उसमें अचुनाव पैदा हो जाता है। वह अकर्ता हो जाता है। उसके भीतर साक्षी का जन्म होता है। और साक्षी हो जाना इस जगत में महत्तम से महत्तम घटना है, चैतन्य का ऊंचा से ऊंचा शिखर है।
जब तक वैसा शिखर न मिले, तुम दुख में रहोगे। जब तक वैसा कमल तुम्हारे सहस्रार में न खिले तब तक तुम दुखी रहोगे। दुख यही है कि जो हम हो सकते हैं, हम नहीं हो पा रहे हैं। और नहीं हो पा रहे हैं हम अपने ही...अपने ही उपद्रव के कारण। चिंता में शक्ति जा रही है, फूल खिलें कैसे? विषाद में प्राण अटके हैं, फूल खिलें कैसे? रोने में तो सारी योजना डूबी जा रही है, मुस्कुराहट आये कैसे? सारा जीवन तो आंसुओं से बहा जा रहा है, फूल ढलें तो ढलें कैसे?
तुम अगर चुनाव छोड़ दो, तुम सिर्फ साक्षी हो जाओ, देखते रहो, और जो प्रभु कराये करते रहो, कर्ता न बनो, ऐसा न कहो कि मैंने किया—उसने करवाया। बुरा तो बुरा, भला तो भला। न पीछे के लिए पछताओ, न आगे के लिए योजना बनाओ। इसको अष्टावक्र ने कहा है : आलसी शिरोमणि। वह जो आलस्य के परम शिखर पर पहुंच गया। इसका यह अर्थ नहीं है कि उसके कर्म शून्य हो जाते हैं। सिर्फ कर्ता शून्य हो जाता है, कर्म की विराट लीला तो चलती ही रहती है। नाच चलता रहता है, नाचनेवाला खो जाता है। गीत चलता रहता है, गायक खो जाता है। यात्रा चलती रहती है, यात्री खो जाता है। __ और ध्यान रखना, तीर्थयात्रा का यही अर्थ है : यात्रा चलती रहे, यात्री खो जाये। यात्री न बचे, यात्रा बचे-बस तीर्थयात्रा आ गयी। तुम तीर्थयात्रा बन गये। तुम स्वयं तीर्थ बन गये। अब तीर्थंकर होने में ज्यादा देर नहीं है।
हरि ॐ तत्सत्!
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4