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'अठहत्तर साल हो गये', मैंने कहा, 'छोड़ो भी, यह रेत है। इससे तेल निकलता ही नहीं। नहीं तो तुम जीत जाते, मजबूत आदमी हो! कितनी दफा अदालत में तुम पर मुकदमे चल चुके हैं?'
वे कहते हैं, कई दफे चल चुके हैं इस क्रोध की वजह से। झगड़ा-झांसा मेरी जिंदगी में ही रहा। जहां-जहां जो करूं, झगड़ा-झांसा। हर बात में उपद्रव। घर में भी नहीं बनती। बेटों से भी नहीं बनती। भाई से भी नहीं बनती। बाप से भी नहीं बनी कभी। बाप चले भी गये, झगड़े में ही गये। जब बाप मरे तो बोलचाल बंद था। पत्नी ऐसे ही मर गयी रो-रो कर। मगर कुछ है कि बात जाती नहीं।
मैंने कहा, 'तुमने अपनी पूरी चेष्टा भी कर ली है। एक साल अब तुम मेरी मान लो। स्वीकार कर लो।'
साल भर बाद वे मेरे पास आये तो उनको पहचानना मुश्किल था। उनके चेहरे पर ऐसा प्रसाद था...वे कहने लगे, अपूर्व हुई घटना। स्वीकार मैंने कर लिया और सबको मैंने कह दिया कि मैं क्रोधी आदमी हूं और मैंने अब अन्यथा होने का भाव भी त्याग दिया। मैं वहां से कसम ले कर आ गया हूं कि एक साल तो अब मैं जो हूं सो हूं। अपने बेटों को कह दिया, अपने भाइयों को कह दिया कि अब मुझे स्वीकार कर लो जैसा हूं; मैंने भी स्वीकार कर लिया। और कुछ ऐसा हुआ कि साल तो बीत गया, क्रोध की खबर नहीं आ रही है।
क्या हो गया? तुम जब स्वीकार कर लेते हो, तनाव चला गया। जब तुमने ही मान लिया कि मैं क्रोधी हूं तो तुमने समर्पण कर दिया। अन्यथा हम घूमते रहते हैं एक ही वर्तुल में, जैसे कोल्हू का बैल चलता है; फिर वही, फिर वही, कहीं पहुंचना नहीं होता।
दिशाएं बंद हैं
आकाश उड़ता-फड़फड़ाता है वहीं फिर लौट आता है। आंधियां कल जो इधर से जा रही थीं जा नहीं पायीं हांफती है बंद बोझिल कहासे-सी एक परछाईं दिशाएं बंद हैं . दीवार को उस पार से कोई हिलाता है थका फिर लौट आता है धूप जलता हुआ सागर द्वीप छांहों के सरक जाते पिघल कर मछलियां जैसे मरे पल-छिन उतर आ रोज जाते हैं सतह पर जाल कंधों पर धरे दिन सुबह आता है हर शाम खाली लौट जाता है
रसो वै सः
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