________________
विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः।
ऐसा व्यक्ति सब जगह एक ही दर्शन में, एक ही दृष्टि में स्थिर रहता है। उसे कुछ भेद नहीं दिखाई पड़ता। उसका मतलब यह मत समझ लेना कि वह स्त्री से कहने लगता है कि आप कहां जा रहे, या पुरुष से कहने लगता है कि अच्छी आ गयीं, बैठिये! इसका यह मतलब नहीं है कि उसे भेद नहीं दिखाई पड़ता। भेद सब ऊपरी रह जाते हैं, व्यावहारिक रह जाते हैं; आंतरिक भेद नहीं रह जाता।
आंतरिक भेद तुम्हारी देह में है ही नहीं; आंतरिक भेद तो तुम्हारी चाह में है। जब भीतर कामवासना प्रगाढ़ होती है तो स्त्री अलग मालूम पड़ती है, पुरुष अलग मालूम पड़ता है। जब भीतर की कामवासना गिर गयी तो अब स्त्री और पुरुष बाहर अलग हैं, यह अंतर नहीं रह जाता।
इसका यह मतलब नहीं है कि तम्हें स्त्री स्त्री नहीं दिखाई पडती। स्त्री अब भी स्त्री दिखाई पड़ती है। लेकिन यह भेद औपचारिक है, सामाजिक है, शारीरिक है। इस भेद में वस्तुतः कोई भेद नहीं है। भिन्नता मालूम होती है; भेद नहीं मालूम होता है। दोनों अलग-अलग ढंग से बने हैं, लेकिन दोनों में एक का ही वास है। ऊपर का ढांचा थोड़ा भिन्न है, शरीर और रासायनिक भिन्नता है; लेकिन भीतर आत्मा एक ही जैसी है। न कोई पुरुष है न कोई स्त्री है। सब आत्मा है। जो स्वयं आत्मवान होता है, उसे सब तरफ आत्मा का ही दर्शन होता है।
'क्षीण हो गया है संसार जिसका, ऐसे मनुष्य में न हिंसा है न करुणा है, न उदंडता और न-दीनता, न आश्चर्य न क्षोभ।
न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता। नाश्चर्यं नैव च क्षोभः क्षीणसंसरणे नरे।। क्षीणसंसरणे नरे—जिसका संसार क्षीण हो गया ।
खयाल करना, संसार से मतलब यह नहीं है जो तुम्हारे चारों तरफ फैला है; यह तो कभी क्षीण नहीं होता। कितने बुद्धपुरुष हो गये, यह तो चलता जाता है। 'संसार क्षीण हो गया' का अर्थ है : जिसके भीतर अब संसार के प्रति कोई आकर्षण-विकर्षण न रहा। हो तो ठीक, न हो तो ठीक। जैसा है वैसा है। इसमें अन्यथा करने की कोई वासना नहीं है। आज खो जाये तो ठीक; चलता रहे अनंत-काल तक तो ठीक। संसार बाहर का तो रहेगा ही, लेकिन भीतर का संसार खो जाता है।
भीतर के संसार का अर्थ है : विचारों का, वासनाओं का संसार। क्षीणसंसरणे नरे—जिस व्यक्ति का यह अंतर-संसार शांत हो गया। न हिंसा नैव कारुण्यं—ऐसे व्यक्ति में न तो हिंसा रह जाती, न करुणा। यह समझने जैसी बात है।
हम कहते हैं : महावीर महाकरुणावान हैं। वह हमारी गलती है। हमारी तरफ से ठीक लगता है। लेकिन महावीर की तरफ से सोचने पर गलती है। जिसका क्रोध ही चला गया. उसमें करुणा कैसे बचेगी? जिसमें क्रोध ही न रहा, उसमें करुणा का क्या उपाय है? और जिसमें हिंसा न बची, उसमें अहिंसा कैसे होगी? जो दूसरे को दुख नहीं देना चाहता, वह दूसरे को सुख कैसे देना चाहेगा? उसे तो सुख-दुख बराबर हो गये। जो दूसरे को मारना नहीं चाहता, वह दूसरे को बचाना भी क्यों चाहेगा? क्योंकि वह जानता है, अब न तो कुछ मरता है, न कुछ बचाया जाता है।
| 210
अष्टावक्र: महागीता भाग-4