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ट्रेन की जरूरत ही नहीं है घर लौटने के लिए। विधि की जरूरत नहीं है, उपाय की जरूरत नहीं है— बोध मात्र काफी है। अबोध में चले गये हो, बोध में लौट आओगे। सो गये, चले गये; जाग गये, लौट आये।
मौन यामिनी मुखरित मेरी मधुर तुम्हारी पग पायल सी इस पायल की लय में मेरी श्वासों ने निज लय पहचानी इस पायल की ध्वनि में मेरे प्राणों ने अपनी ध्वनि जानी ताल दे रहा रोम-रोम है तन का उसकी रुनक झुनक पर इस अधीर मंजीर मुखर से आज बांध लो मेरी वाणी मौन यामिनी मुखरित मेरी मधुर तुम्हारी पग पायल से
मैं तुमसे कह रहा हूं, उसमें कुछ सिद्धांत नहीं है; बस एक संगीत है। संगीत है कि तुम जाग जाओ। एक तो संगीत होता है जो सुलाता है। लोरी गाती है मां तो बच्चा सो जाता है । फिर एक और संगीत है जगाता है। घड़ी का अलार्म बजता है और नींद टूट जाती है।
मैं तुमसे जो कह रहा हूं, उसमें कुछ सिद्धांत नहीं है। उसमें केवल एक संगीत है, एक स्वर है— जो तुम सुन पाओ तो तुम जागने लगो। उसी स्वर की धारा को पकड़ कर तुम वहां पहुंच जाओगे जहां से तुम कभी हटे नहीं हो। तुम वही हो जाओगे जो तुम हो, जो तुम्हें होना चाहिए। तुम अपने स्वभाव को पहचान लोगे - उसी संगीत की झलक में! और तब निश्चित ही तुम पाओगे कि सुन कर ही गंगा-यमुना में स्नान हो गया।
मत खड़े रहो, डुबकी ले लो ! बहुत हैं ऐसे अभागे – जायेगी तो भी वे प्यासे ही खड़े रहेंगे। इतना भी न जो प्यासे हैं, उन्हें तृप्त कर लें । किनारे पर ही खड़े रह तो हर जगह तुम प्रभु को पाओ ।
निश्चित ही, यह जो मैं तुमसे कह रहा हूं, तुम्हारे द्वार पर गंगा-यमुना को ले आया हूं। तुम किनारे तुममें भी बहुत हैं, जिनके सामने भी गंगा आ सकेगा उनसे कि झुककर अंजुली भर लें; कंठ जायेंगे। अगर जरा तुम झुको... तुम जरा झुको,
तेरे रूप की धूप उजागर पनघट पनघट छलके रस की गागर पनघट पनघट तेरी आशाएं बसती हैं बस्ती बस्ती तेरी मस्ती सागर सागर पनघट पनघट
तुम जरा झुको, तो तुम मदमस्त हो जाओ। तुम जरा अपनी गागर को खोलो तो सागर उतर आये। जो कह रहा हूं, वह कोई सिद्धांत नहीं, कोई दर्शनशास्त्र नहीं। मैं तुम्हें हिंदू, मुसलमान,
मैं
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4