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याद सतत हो जाती है। याद जैसी भी नहीं रह जाती। - कबीर से किसी ने पूछा है कि कैसी करें याद? तो कबीर ने कहा है : ऐसी करो याद जैसे कि कोई पनघट से पानी भर कर पनिहारिन घर की तरफ चलती है, सिर पर घड़े रख लेती है। हाथ भी छोड़कर गपशप करती है अपनी सहेलियों के साथ, बातचीत करती है, राह पर चलती है, राह को भी देखती है; लेकिन फिर भी भीतर गहरे में घड़े को संभाले रखती है। वे घड़े गिरते नहीं। बात करती है, राह चलती है, सब चलता है; लेकिन भीतर घड़े संभाले रहती है।
ऐसे ही भक्त सब करता रहता है। अब भगवान को बैठ कर अलग से याद भी नहीं करता, लेकिन भीतर गहरे में याद बनी रहती है। सतत उसकी धार हो जाती है।
दो तरह की धार होती है। तुमने कभी एक बर्तन से दूसरे बर्तन में पानी डाला, तो धार बीच-बीच में टूट जाती है। तेल डाला, तो तेल की सतत होती है। तो कबीर कहते हैं, तेल की धार की तरह हो जाती है याद, टूटती नहीं। याद भी नहीं आती अब। विस्मरण ही नहीं होता। ऐसा कहो कि याद सतत हो जाती है, श्वास-श्वास में पिरो जाती है, धड़कन-धड़कन में बस जाती है। __ श्वास की तुम याद रखते हो? चलती रहती है तुम्हारी याद के बिना। कहां याद करते हो? हां, कभी अड़चन आती है तो याद करते हो। खांसी आ जाये, कोई सर्दी-जुकाम हो जाये, श्वास में कोई अड़चन हो, अस्थमा हो, तो याद आती है। अन्यथा याद नहीं आती, श्वास चलती रहती है। - ऐसी ही प्रभु की याद हो जाती है जब, तो चौथी घटना घटती है। मैं भी भूल गया, तुम भी भूल गये। अब जो शेष रह गया, मैं-तू के पार, वही है हकीकत।
तीसरा प्रश्नः कबीर, मीरा और अष्टावक्र तीनों समर्पण की बात करते हैं। कृपया बतायें कि उनके समर्पण के भाव में फर्क क्या है?
भ | क्त जब समर्पण की बात करता है तो
वह कहता है: परमात्मा के प्रति। भक्त के समर्पण में पता है-प्रति। उसमें ऐड्रेस है। और जब ज्ञानी समर्पण की बात करता है तो उसमें कोई के प्रति नहीं है, शुद्ध समर्पण है। फर्क समझना।
भक्त का समर्पण भगवान के प्रति है; ज्ञानी का समर्पण सिर्फ समर्पण है, किसी के प्रति नहीं है।
तु स्वयं मंदिर है
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