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और भीतर चलो! ऐसे चलते, चलते, चलते, एक घड़ी आती है जहां जो तुम नहीं हो वह छूट गया; अब वही बच रहता है जो तुम हो, जिसमें से अब कुछ भी इनकार नहीं किया जा सकता। नेति-नेति कहते-कहते नहीं यह, नहीं यह — आ गये तुम अपने घर में भीतर ! अब वही बचा जो अब तक कह रहा था ः 'नेति नेति; नहीं यह, नहीं यह !' यही तुम हो। कोई उत्तर नहीं मिल जायेगा लिखा हुआ। कहीं कोई भीतर नेमप्लेट रखी नहीं है, एक शिलापट्ट नहीं है कोई जिस पर लिखा है यह तुम हो। लेकिन अब तुम्हें अनुभव होगा। हो जायेगी वर्षा अनुभव की । अस्तित्व तुम्हें घेर लेगा। जीवन और चैतन्य दोनों की गहन प्रगाढ़ प्रतीति होगी, साक्षात्कार होगा।
और यही ज्ञान का फल है। इसके होते ही तुम्हारी इंद्रियां स्वच्छ हो जायेंगी। इसके होते ही जीवन तृप्त हो जायेगा। इसके होते ही तुम अकेले हो गये; मगर अकेलापन नहीं — एकाकी । एकाकी का पन, एकाकीपन । अब परमात्मा ही बचा !
तैर
रहीं
लहरें
डूब गया सागर जाग उठे तारे
निंदियाया अंबर
पड़ी रही माटी
चली गई गागर मुस्का दी बिजुरी अंसुआया बादर
मुंदे नयन सपने
खुली दीठ दर्पण फलित हुआ चिंतन अआया दर्शन ।
मुंदे नयन — सपने, खुली दीठ- - दर्पण !
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तुम अभी आंख बंद किए किए जी रहे हो। तुम्हें बड़ी हैरानी होगी। तुम तो कहते हो, हम आंख खोल कर जी रहे हैं। तुम्हारी बाहर आंख खुली है तो भीतर आंख बंद है। जिस दिन तुम बाहर से आंख बंद करोगे, भीतर आंख खुलेगी। इस उलटे गणित को खयाल में ले लेना। अगर बाहर ही आंख खुली रही तो भीतर आंख बंद है; भीतर तुम अंधे हो । थोड़ी बाहर आंख बंद करो तो दृष्टि भीतर मुड़े। वही दृष्टि जो बाहर संलग्न है, भीतर मुक्त हो जाती है। अभी तो भीतर सपने ही सपने हैं । अभी भीतर सच कुछ भी नहीं है।
सहज ज्ञान का फल है तृप्ति
मुंदे नयन — सपने!
यह जो बाहर खुली आंख है, भीतर तो आंख मूंदी है।
मुंदे नयन — सपने! खुली दीठ - दर्पण |
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