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कितने दिन हुए विवाह हुए? उसने कहा कि सात साल हो गये। मैंने कहा ः झूठ तो मत बोल। सात साल! तो तू विवाहित भी नहीं है इनके साथ। सात साल बाद कोई पति दूसरे डब्बे में से हर स्टेशन पर...शर्बत और चाय और कॉफी और आइसक्रीम कभी ले कर आए, सुना है? ऐसा हुआ कहीं? कलियुग में तो नहीं होता। सतयुग में भी होता था, ऐसा भी कोई उल्लेख किसी पुराण में नहीं है। तू झूठ बोल ही मत। तू सच-सच कह दे, मैं किसी से कहूंगा नहीं। उसने कहा ः 'आपने कैसे पहचाना? हम तो विवाहित नहीं हैं।' - इसमें पहचानने की बात ही क्या है? पति तो एक दफा बिठा कर जो नदारद होता, फिर पूरी यात्रा उसका पता नहीं चलना था। ऐसा सौभाग्य तो कभी-कभी मिलता है।
तुमने देखा, पति-पत्नी साथ बैठे हों, कैसे उदास और गंभीर मालूम होते हैं! कोई मेहमान आ जाता है तो दोनों प्रफुल्लित हो जाते हैं कि चलो, कोई आ गया तो कुछ थोड़ा रस तो आएगा।
मेरे एक मित्र हैं; हिम्मतवर आदमी हैं। ऐसा एक दिन मुझसे बात करते थे। मैंने उनसे पूछा कि अब कब तक धंधे में पडे रहोगे? खब कमा लिया। उन्होंने कहा कि जिस दिन मैं पैंतालीस साल का हो जाऊंगा. उसी दिन छोड दंगा। सच में हिम्मत के आदमी हैं। पैंतालीस साल के हो गये तो उन्होंने उसी दिन सब बंद कर दिया। मझसे पछने लगे कि अब बोलो क्या करें, क्योंकि अब मैं खाली हं। तो मैंने कहा, अब अच्छा है. तम किसी पहाडी जगह पर चले जाओ। सब तम्हारे पास सविधा है। अब शांति से रहो। उन्होंने कहा, वह तो ठीक है; लेकिन यह भी तो देखो कि पत्नी से, जब मेरी उम्र पंद्रह साल की थी, तब मेरा विवाह हुआ। तीस साल से हम साथ हैं। अब तो हम दोनों अगर संग रह जाते हैं तो एकदम संकट हो जाता है। आप चलोगे हमारे साथ पहाड़ पर रहने? क्योंकि हमें कोई एक तो चाहिए ही, तो थोड़ा रस रहता है। हम तो किसी सफर पर भी नहीं जाते बिना मित्र को लिये।
तुमने देखा, पति-पत्नी कहीं जा रहे हैं तो किसी मित्र को या मित्र की पत्नी को या मित्र के परिवार को साथ लेना चाहते हैं! कारण? अगर पति-पत्नी अकेले छूट गये तो वे एक-दूसरे को उबाते हैं, और कुछ भी नहीं। जो कहना था कह चुके बहुत बार, जो करना था कर चुके बहुत बार, जो देखना था देख चुके बहुत बार; अब तो सिर्फ ऊब हाथ रह गयी है। अब तो कोई उपाय नहीं रह गया है। अब तो कोई रस नहीं रह गया है। शायद इसी स्त्री के लिए दीवाने थे, इसी पुरुष के लिए दीवाने थे। और अब मिल गये तो सब शांत हो गया है। दुख हो जाता है।
सुख को तुमने दुख में बदलते देखा या नहीं? जिस दिन तुम यह देख लोगे कि दुख सुख में बदल जाता है, सुख दुख में बदल जाता है, उस दिन तुम्हें एक बात साफ हो जायेगी कि दोनों अलग-अलग नहीं हैं। तुम्हारी चाह का ही भेद है। चाहो तो सुख, चाहो तो दुख। जैसा तुम चाह लेते, बस उसके अनुकूल सुख-दुख की सीमा-रेखा खिंच जाती है। लेकिन जिसकी कोई चाह नहीं, उसकी सोचो। उसके लिए सुख और दुख दोनों विसर्जित हो गये।
अष्टावक्र कहते हैं : सुखे दुःखे नरे नार्यां संपत्सु च विपत्सु च।
न तो संपत्ति में न विपत्ति में, न नर में न नारी में, न सुख में न दुख में—ऐसे व्यक्ति को कोई भेद नहीं रह जाता।
धर्म अर्थात सन्नाटे की साधना
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