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तैरो मत, बहो!
वीणा बोलेगी, गान उठेगा। और ऐसा गान उठेगा, जिसको अनाहत कहते हैं। एक तो आहत है, जो चोट करने से पैदा होता है; एक अनाहत है, जो चोट करने से पैदा नहीं होता। उसी को हमने नादब्रह्म कहा है।
तुम भर चेष्टा मत करो। तुम शांत हो कर बैठ जाओ, रख दो वीणा को। और अचानक तुम पाओगेः शून्य से उठने लगा संगीत-शून्य का संगीत! नीरव है। कहीं स्वर भी सुनाई नहीं पड़ता, फिर भी मस्त होने लगोगे, डोलने लगोगे! रो-रोआं एक अपूर्व पुलक से भर जायेगा!
पांचवां प्रश्नः ध्यान में रोती हूं, आपका चित्र देख कर विभोर होती हूं और आपकी याद से भी भीतर बहुत कुछ घटित होता है। क्या करूं?
| छा है धर्मरक्षिता ने।
| अगर ध्यान में रोना आता है तो इससे सुंदर और कुछ भी नहीं हो सकता। रोओ! आंसुओं से ज्यादा बहुमूल्य मनुष्य के पास कुछ भी नहीं प्रभु के चरणों में चढ़ाने को। और सब फूल फीके हैं—आंसुओं के फूल जीवंत फूल हैं; तुम्हारे प्राणों से आ रहे हैं; तुम्हारे हृदय से आ रहे हैं।
रोओ! रोने में बाधा मत डालना। ऐसा मत सोचना, संकोच मत करना। ऐसा मत सोचना कि क्या रो रही हूं, ठीक नहीं। दिल खोल कर रोओ। आनंदित हो कर रोओ। मगन हो कर रोओ।
रोने का अर्थ ही यही है : हृदय बहने लगा। रोने का अर्थ क्या होता है? __साधारणतः हमने रोने के साथ बड़े गलत संबंध जोड़ लिए हैं। हम सोचते हैं, लोग दुख में ही रोते हैं। गलत बात। हां, दुख में भी रोते हैं; सुख में भी रोते हैं। और जब महासुख बरसता है तो ऐसे रोते हैं जैसे कि कभी नहीं रोये थे।
रोने का कोई संबंध सुख-दुख से नहीं है। रोने का संबंध किसी और बात से है। वह बात है: जब भी तुम्हारे हृदय में कोई भाव इतना हो जाता है कि समाता नहीं, अटता नहीं, सम्हाले नहीं सम्हलता, तब आंसुओं की धार लगती है। दुख ज्यादा हो तो भी आदमी रोता है; महासुख हो जाये तो भी रोता है। गहन शांति में भी आंसू उतर आते हैं। बड़े प्रेम में भी आंखें झरने लगती हैं, झड़ी लग
प्रभ-मंदिर यह देहरी
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