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भीतर विचार की कोई लहर नहीं उठती-तो यहां कितने आदमी बैठे हैं? यहां फिर आदमियों की गिनती नहीं की जा सकती। फिर तो यहां एक ही शून्य बैठा है। तुम एक शून्य में कितने ही शून्य जोड़ते जाओ. संख्या थोडे ही बढती है। दो शन्य भी मिल कर एक ही शन्य तीन शन्य भी मिल कर एक ही शून्य, चार शून्य भी मिल कर एक ही शून्य। अनंत शून्य भी जोड़ते जाओ तो भी शून्य एक ही रहता है। शून्य में कहीं संख्या थोड़े ही बढ़ती है। लेकिन तुम बोले, दूसरा बोला, तो दो हो गये। बोले कि दो हुए, चुप हुए कि एक हुए। तुमने कुछ कहा कि तुम अलग हुए, किसी दूसरे ने कुछ कहा कि अलग हुआ। विचार आया कि भेद आया। शब्द आये कि शत्रुता आयी। तुमने कहा कि मैं हिंदू, मैंने कहा कि मैं मुसलमान-फर्क हो गया। तुमने कहा मैं बाइबिल मानता, मैंने कहा मैं कुरान-फर्क हो गया, विवाद आ गया। जहां विवाद आ गया वहां हम अलग-अलग हो गये। जहां निर्विवाद हम बैठे हैं चुप, वहां हम अलग नहीं; वहां एक ही बैठा है। जब तुम दौड़ते हो तो अलग-अलग, जब तुम बैठते हो तो एक ही रह जाता है। जब तुम सपने में होते हो तो भिन्न-भिन्न...। ___ तुमने एक मजा देखा! सपने में तुम अपने मित्र को निमंत्रित नहीं कर सकते, इतने अकेले हो जाते हो। रात सपना देखते हो, खूब अच्छा सपना भी देखो तो भी तुम अपनी पत्नी को अपने सपने में नहीं ले जा सकते। यह नहीं कह सकते कि तू भी आ जा, बड़ा सुंदर सपना है। कोई उपाय नहीं है। सपने में साझेदारी नहीं की जा सकती। दो आदमी एक ही सपना नहीं देख सकते। सपना इतना भिन्न कर देता है हमें! दो आदमी एक ही सपना नहीं देख सकते। कितना ही प्रेम उनके भीतर हो और कितना ही एक-दूसरे के साथ उनकी आत्मीयता हो, तो भी सपने में अलग हो जाते हैं। जैसे दो आदमी एक साथ सपना नहीं देख सकते, ऐसे ही साक्षी में दो आदमी दो नहीं रह सकते, एक हो जाते हैं। उस एक का नाम ब्रह्म है।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
और जो तुमने मान रखा है 'है' और जो तुमने मान रखा है 'नहीं है'-वे दोनों ही कल्पना-जाल हैं। वह तुम्हारी कल्पना है। तुम सच हो, तुम्हारा होना परम सत्य है, लेकिन शेष सब कल्पना का जाल है। अब इसे तुम अष्टावक्र को सुन कर मान लोगे तो यह निश्चित ज्ञान न होगा। इसको तुम प्रयोग कर के जानोगे तो निश्चित ज्ञान हो जायेगा।
धर्म उतना ही प्रयोगात्मक है जितना विज्ञान। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए।
वैज्ञानिक कहते हैं : विज्ञान बड़ा प्रयोगात्मक, एक्सपेरिमेंटल है। मैं तुमसे कहता हूं: धर्म भी उतना ही प्रयोगात्मक है। विज्ञान और धर्म में प्रयोग को ले कर विवाद नहीं है। जो विरोध है वह प्रयोगशाला को लेकर है। विज्ञान की प्रयोगशाला बाहर है; धर्म की प्रयोगशाला भीतर है। विज्ञान प्रयोग करता है अन्य पर, धर्म प्रयोग करता है स्वयं पर। वैज्ञानिक टेबिल पर बिछा देता है किसी चीज को, उसका परीक्षण, उसका विश्लेषण करता है। धार्मिक अपने ही भीतर जाता है, अपने को ही बिछा देता है टेबिल पर, अपना ही परीक्षण करता है। धर्म है स्व-परीक्षा; विज्ञान पर-परीक्षा। विज्ञान है दूसरे को जानना, धर्म है स्व-ज्ञान-लेकिन प्रयोगात्मक है, एकदम प्रयोगात्मक है।
और तुमने अगर बिना प्रयोग किये कुछ मान लिया है तो उस कूड़े-कर्कट को हटाओ। उससे कुछ सार नहीं है। उससे तुम बोझिल हो गये हो। उससे तुम्हारा सिर भारी हो गया है। उससे पांडित्य
तथाता का सूत्र-येत है
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