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तुम्हारा मन कोई व्याख्या करके तुम्हें च्युत न कर दे।
यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद् भवति भ्रमः ।
उसके अनुभव के आते ही, तुम्हारे चैतन्य के क्षितिज पर उसकी किरणों के फूटते ही तुमने अब तक जो जीवन जाना था सब भ्रम हो जाता है, सब स्वप्न हो जाता है।
तुम सुनते हो, तथाकथित पंडित, साधु-संत लोगों को समझाते रहते हैं, जगत माया है। जगत इतने सस्ते में माया नहीं है। महंगा सौदा है। ऐसे वह माया नहीं होता ! जब तक ईश्वर सच न हो जाए, तब तक भूल कर जगत को माया मत कहना । अन्यथा तुम एक झूठ दोहरा रहे हो। वह तुम्हारा अनुभव नहीं है। माया कोई दार्शनिक सिद्धांत नहीं है— एक अनुभूति, एक प्रत्यक्ष साक्षात्कार है। यह तो ऐसा ही है कि अंधेरे में तो बैठे हो, प्रकाश से तो कभी आंखों का मिलन न हुआ, प्रकाश से तो कभी भांवर न पड़ी और अंधेरे में बैठे-बैठे कहते हो : अंधेरा सब असत्य है । और उसी अंधेरे के कारण लड़खड़ाते हो, बार-बार गिर जाते हो, हाथ-पैर तोड़ लेते हो, हड्डी पसलियां टूट जाती हैं, गड्ढों में पड़ जाते हो, नालियों में गिर जाते हो और कहे चले जाते हो कि अंधेरा नहीं है। तुम्हारी हालत देखकर पता चलता है कि सिर्फ अंधेरा है, और कुछ भी नहीं है । और तुम्हारे वचन सुन कर लगता है कि अंधेरा कुछ भी नहीं है, सब भ्रम जाल है, असली में तो प्रकाश है। लेकिन वह प्रकाश कहां है ? और अगर प्रकाश हो तो तुम गड्ढों में न गिरो, दीवालों से न टकराओ; तुम्हारे जीवन में राह हो, तुम्हारे जीवन में शांति हो, चैन हो, आनंद हो ।
जब कोई आदमी तुमसे कहे, जगत माया है, तो जरा गौर से देखना, क्या उस आदमी की आंखों प्रभु का प्रकाश है? क्या उस आदमी की वाणी में शून्य का स्वर है ? क्या उस आदमी के चलने-बैठने में प्रसाद है ? जरा गौर से देखना। क्या वह कहता है, इसका कोई मूल्य नहीं है।
संसार तभी माया होता है जब 'उसका' उदय हो जाता है; उसके पहले नहीं। उसके पहले संसार ही सच है, परमात्मा माया है। तुम्हारे लिए परमात्मा झूठ है, संसार सच है । और अगर तुम ऐसा मान कर चलो तो शायद किसी दिन परमात्मा सच हो जाए और संसार झूठ हो जाए ।
लेकिन तुम झूठ में खूब खोये हो। तुम मानते संसार को सच हो, जानते भी संसार को सच हो, और दोहराते हो कि संसार माया है। यह झूठा पाखंड है। पांडित्य अक्सर पाखंड ही होता है। तुमने उधार सत्य सीख लिया। सुन लिया तुमने अपनी नींद में किसी और का वचन, किसी बुद्ध की वाणी सुन ली नींद में पड़े-पड़े, और नींद में तुम उसे दोहराने लगे। उसका कोई संस्पर्श नहीं हुआ तुम्हारे जीवन में; वह छुई नहीं; तुम्हारे प्राण उससे बदले नहीं। अब कोई कितना ही लाख चिल्लाये कि सुबह हो गयी, सूरज निकला, अंधेरा झूठ है और हाथ में लालटेन लिये चल रहा हो, तो तुम क्या कहोगे ? तुम कहोगे अगर सूरज निकल गया, अंधेरा झूठ है, तो यह लालटेन किसलिए लिये हो ?
तुमने साधु-संन्यासियों को देखा ? एक तरफ कहते हैं संसार माया है, दूसरी तरफ समझाते हैं कि छोड़ो, त्याग करो । अब माया है तो माया का कोई त्याग कर सकता है? जो है ही नहीं, उसका त्याग कैसे ? एक तरफ कहते हैं, संसार है ही नहीं; और दूसरी तरफ कहते हैं, सावधान, कामिनी - कांचन से बचना ! जरा इनकी वाणी तो सुनो। लालटेन लटकाये हुए हैं हाथ में और कहते हैं, लालटेन सम्हाल कर रखना और तेल लालटेन में डालते रहना, हालांकि सूरज निकला हुआ है
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4