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शून्य हो गयी है, चेष्टा व्यर्थ हो गयी है और उसकी इंद्रियां विकल हो गयी हैं।' शून्या दृष्टिर्वृथाचेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च।
न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीण संसार सागरे । ।
दृष्टिः शून्या — उस परम दशा में दृष्टि शून्य हो जाती है।
तुम्हारी आंखें बहुत भरी हुई हैं, हजार-हजार विचारों से भरी हुई हैं। तुम कुछ भी निर्विचार नहीं देखते, खाली आंख से नहीं देखते। तुम जब भी देखते हो पक्षपात से देखते हो, निष्पक्ष नहीं देखते। तुम कुछ भी देखने जाते हो, देखने के पहले ही कोई निर्णय करके जाते हो ।
यहां मेरे पास तुम सुनने आये । कोई निर्णय करके आ जाता है कि यह आदमी बुरा है । कोई निर्णय करके आ जाता है कि आदमी अच्छा है। आये बिना, आने के पहले निर्णय कैसे किया अच्छे का या बुरे का ? कोई निर्णय करके न आते तो ही निर्णय हो सकता था। तुम निर्णय करके पहले ही आ गये, अब निर्णय बहुत मुश्किल होगा। अब बहुत संभावना यह है कि तुम अपने ही निर्णय को पक्का कर के लौट जाओगे। जो आदमी तय कर के आ गया है कि यह आदमी भला है, वह उतनी उतनी बातें चुन लेगा जिनसे उसका निर्णय मजबूत होता है। वह चुनाव कर लेगा। जो आदमी तय कर के आ गया है कि आदमी बुरा है, वह भी निर्णय कर के जायेगा कि पक्का है, ठीक सोच कर आये थे : आदमी बुरा है। वह अपने हिसाब से निर्णय कर लेगा । वह अपनी बातें चुन लेगा- -अपने पक्ष में। जो उसके पक्ष को मजबूत करे, वह चुन लेगा। और दोनों यह सोच कर जायेंगे, वे मेरे पास हो कर गये। वे आये ही नहीं। उनका पक्षपात आने कैसे देगा ? पक्षपात बीच में खड़ा था, वे मुझे देख ही न पाये । पक्षपात ने सब रंग दिया। उनकी आंख पर चश्मा था।
तुम्हारी हालत करीब-करीब ऐसी है कि चश्मा ही चश्मा है, आंख तो है ही नहीं । चश्मे पर चश्मे हैं और आंख भीतर है ही नहीं। क्योंकि आंख तो शून्य की ही होती है।
दृष्टिः शून्या ।
बड़ी अपूर्व बात है। आंख तो होती ही तब है जब शून्य होती है; जिस पर कोई राग-रंग नहीं होता; जिस पर कोई पक्ष नहीं होता, कोई धारणा नहीं होती, कोई सिद्धांत, कोई शास्त्र, कुछ भी नहीं होता ।
एक ईसाई वृद्धा ने मुझे आ कर कहा कि 'आपके वचन सुन कर मैं बहुत प्रसन्न हुई । आपने ईसाइयत में मेरी श्रद्धा को मजबूत कर दिया। आपने जो कहा वही तो जीसस ने कहा है।'
इस महिला को हुआ क्या? यह भरी है जीसस से। खयाल सब तैयार है। इसने वही - वही चुन लिया जिससे मेल खाता था; वह सब छोड़ दिया होगा जो मेल नहीं खायेगा । वह प्रसन्न हो गयी। वह मुझे धन्यवाद देने आयी। मैंने कहा कि तू आयी ही नहीं यहां । तेरा पहुंचना ही नहीं हुआ। तूने मुझे सुना कहां ?
उसने कहा कि आप गलती में हैं। आपने देखा न होगा, मैं पंद्रह दिन से सुनती हूं।
मैंने कहा कि तू पंद्रह साल भी सुन तो भी तू मुझे सुनेगी नहीं। खाली आंख हो कर आ । ईसाई बन कर मत सुन | हिंदू बन कर मत सुन । मुसलमान बन कर मत सुन। कुछ बन कर मत सुन, अन्यथा सुनना कैसे होगा ? सिर्फ सुन। और मैं तुझसे कहता नहीं कि मुझसे राजी हो जा। राजी की भी क्या
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4